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नाम : डॉ. हृदय नारायण उपाध्याय
जन्म: ०१ जुलाई १९६२ को चन्दौली जिले के एक गाँव फुलवरिया में।
शिक्षा: काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हिंदी में स्नातकोत्तर परीक्षा में सर्वोच्च अंक प्राप्त करने के बाद ”हिंदी की प्रगतिशील आलोचना में ”द्वंद्व” विषय पर शोध प्रबंध प्रस्तुत किया।
रचना कर्म : कविता, समीक्षा, निबंध, एकांकी का।
प्रकाशन : ‘व्याकरण कौमुदी‘ कक्षा एक से लेकर आठ तक की कक्षा के लिए व्याकरण की पुस्तक। प्राईमरी शिक्षक, शिराजा, कहानीकार, साहित्य दर्पण, साहित्य मंजरी, संगम, व्यंजना प्रज्ञा, विविध भारत, सृजन और अभिव्यक्ति आदि पत्रिकाओं में निबंध समीक्षा एवं कविताएँ प्रकाशित। इसके अतिरिक्त नवभारत, दैनिक भास्कर, स्वतंत्र मत, जे वी जी टाइम्स आदि समाचार पत्रों में आलेख समीक्षाएं एवं कविताएँ प्रकाशित।
प्रसारण : आकाशवाणी अम्बिकापुर, रीवा एवं जबलपुर से कविताओं और चिंतन का प्रसारण।
सम्प्रति :
स्नातकोत्तर शिक्षक (हिन्दी), केन्द्रीय आयुध निर्माण, भुसवाल, ज़िला जलगाँव, महाराष्ट्र।
सम्पर्क : upadhyayhn@yahoo.कॉम
| महादेवी वर्मा :- दिव्य अनुभूतियों की निर्धूम दीपशिखा डॉ. हृदय नारायण उपाध्याय |
आधुनिक हिन्दी काव्य साहित्य में महीयसी महादेवी वर्मा का व्यक्तित्व विराट एवं उनका कृतित्व बहुआयामी है। चिन्तन एवं सृजन की सुचिता महादेवी के साहित्य का मूलाधार है। अगर उनके काव्य साहित्य में भावनाओं की गहराई एवं दार्शनिकता है, तो उनके गद्य साहित्य में मानव मात्र ही नहीं वरन् मानवेतर जगत कल्याण की भी चिन्ता दिखाई पड़ती है। यानि ’हितेन सह साहितम् तस्य भावः साहित्यम्’ के आदर्श मानक पर महादेवी का साहित्य पूरी तरह से खरा उतरता है। महादेवी का उद्देश्य स्वान्तः सुखाय न होकर सर्वजन हिताय एवं सर्वजन सुखाय है। साहित्य सृजन द्वारा समाज सेवा एवं उदात्त मानवीय मूल्यों का प्रसार महादेवी का उद्देश्य रहा है।
नारी शिक्षा के प्रसार की ललक महादेवी में प्रारम्भ से ही थी। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से वैदिक साहित्य पर वे उच्च अध्ययन करना चाहती थीं, लेकिन महिला होने के कारण उन्हें वेदाध्ययन की अनुमति नहीं मिली। यह मलाल ने महादेवी वर्मा को हतोत्साहित नहीं किया वरन् नारी शिक्षा के प्रसार के संकल्प के रूप में उनके भीतर पनपा। जिसकी परिणति ’प्रयाग महिला विद्यापीठ’ की स्थापना के रूप में सामने आयी। इस शिक्षण संस्था का योगदान नारी शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय रहा है। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की पौत्रियों ने भी इसी विद्यापीठ से उच्च शिक्षा ग्रहण की। महादेवी के मन में उच्चशिक्षा की गुणवत्ता को लेकर उँचे आदर्श थे। उनकी सोच थी कि उच्च शिक्षा प्राप्त विद्यार्थी का मन और मस्तिष्क पूर्णतः विकसित हो। उनमें उदात्त मानवीय मूल्यों का समावेश हो। मानव समुदाय में वह अपनी अलग पहचान बना सके। महादेवी ने इस सन्दर्भ में लिखा भी है –
“संसार के मानव-समुदाय में वही व्यक्ति स्थान और सम्मान पा सकता है, वही जीवित कहा जा सकता है जिसके हृदय और मस्तिष्क ने समुचित विकास पाया हो और जो अपने व्यक्तित्व द्वारा मनुष्य समाज से रागात्मक के अतिरिक्त बौद्धिक सम्बन्ध भी स्थापित कर सकने में समर्थ हो।”— १
उच्चशिक्षा प्राप्त हर विद्यार्थी से महादेवी वर्मा ऐसी ही योग्यताओं की अपेक्षा करती थीं। प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्राचार्या के रूप में महादेवी ने ऐसी ही शिक्षा प्रदान कराने का प्रयास किया है। आज़ादी के बाद शिक्षा क्षेत्र में फैले भ्रष्टाचार एवं आयी गिरावट से वे काफी आहत महसूस करती थीं। उनके मन की यह पीड़ा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के नवें दशक के एक दीक्षान्त समारोह में उस समय सामने आयी, जब वे मुख्य अतिथि का सम्बोधन दे रही थीं। महादेवी ने इस पीड़ा को इन शब्दों में व्यक्त किया था – “आज कालेज एवं विश्वविद्यालयों में विद्यार्थी अग्नि के स्फुलिंग के रूप में प्रवेश करते हैं लेकिन उच्च डिग्री प्राप्त करते-करते वे राख बनकर निकलते हैं।” निश्चय ही महादेवी की यह पीड़ा उच्च शिक्षण संस्थाओं की कार्यप्रणाली पर एक तल्ख़ टिप्पणी थी, जिसमें पूरी शिक्षाव्यवस्था के ताने-बाने को नये सिरे से सुधारने की जरूरत महादेवी ने महसूस की थी।
आज स्त्री-विमर्श की चर्चा हर ओर सुनाई पड़ रही है। महादेवी ने इसके लिए पृष्ठभूमि बहुत पहले तैयार कर दी थी। सन् १९४२ में प्रकाशित उनकी कृति ’श्रृंखला की कड़ियाँ’ सही अर्थों में स्त्री-विमर्श की प्रस्तावना है जिसमें तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों में नारी की दशा, दिशा एवं संघर्षों पर महादेवी ने अपनी लेखनी चलायी है।
महादेवी वर्मा ने कई मर्मस्पर्शी संस्मरणों एवं रेखाचित्रों की भी रचना की है। महादेवी के संस्मरण हिन्दी साहित्य जगत में अपनी अलग पहचान रखते हैं। संस्मरण के केन्द्र में मानव हो अथवा मानवेतर जगत से सम्बद्ध कोई प्राणी, उसके चित्रण में महादेवी की करुणा स्वतः फूट पड़ी है। रेखाचित्र एवं संस्मरणों की रचना में महादेवी का कौशल साहित्य-जगत में एक सफल गद्यकार के रूप में उनकी छवि निर्मित करता है। उनकी कृतियाँ स्मृति की रेखाएँ, अतीत के चलचित्र, पद्य के साथी, श्रृंखला की कड़ियाँ और मेरा परिवार को पढ़कर यह अन्तर करना मुश्किल हो जाता है कि महादेवी को कवयित्री कहा जाय अथवा कुशल गद्यकार। निसर्गतः कवयित्री होने के कारण महादेवी के गद्य में भावनाओं की गहराई एवं भाषा में लालित्य विद्यमान है। संस्कृत की अध्येता होने के कारण उनकी भाषा प्रांजल एवं संस्कृतनिष्ठ है। लेकिन संस्कृतनिष्ठ भाषा होने पर भी उसमें प्रवाह है। क्योंकि महादेवी ने आवश्यकतानुसार देशज शब्दों एवं लोक मुहावरों का भी प्रयोग किया है जिस कारण भाषा में कहीं ठहराव नहीं दिखाई पड़ता। उनके संस्मरणों को पढ़ने से यह लगता है कि उनकी लेखनी मानो वह पारस है जिसके स्पर्श से हर वस्तु कंचन बन जाती है। गिल्लू, सोना, नीलू, निक्की रोजी और रानी ये सामान्य प्राणी न होकर हमारे आपके बीच के सम्बन्धी बन जाते हैं आत्मीय बन जाते हैं। इनका रहना हमें आह्लादक बनाता है तो इनका असमय जाना हमें दुखी भी करता है। मानवेतर प्राणीयों पर लिखे उनके संस्मरणों और रेखाचित्रों को पढ़्ते समय महादेवी की सूक्ष्म निरीक्षण एवं मर्मभेदी दृष्टि का ज्ञान होता है, जहाँ वे पशु मनोविज्ञान का भी विश्लेषण करती हैं। इस प्रकार वे साधारण चरित्रों में भी असाधारणता का संधान कर लेती हैं। महादेवी के इन संस्मरणों ने हिन्दी साहित्य पर ऐसा प्रभाव डाला कि संस्मरणों और रेखाचित्रों के लिए महादेवी ने नये क्षितिज का उद्घाटन किया।
’छायावाद’ आधुनिक हिन्दी काव्य का स्वर्णयुग है। इसके चार स्तम्भों में से महादेवी एक हैं। इनकी कविताओं में एक ओर यदि भावनओं की गहराई है तो दूसरी ओर आध्यात्मिक चिन्तन की उँचाई भी है। कवितओं का मूल-स्वर मन की वेदना एवं पीड़ा है जिसका निवेदन महादेवी ने रहस्यवादी तरीके से किया है – “मैं नीरभरी दुख की बदरी।” महादेवी का सम्बोधन-पुरुष लगता है लोक से परे कोई अलौकिक सत्ता है। अपनी प्रेमानुभूतियों की अभिव्यक्ति महादेवी ने बड़े ही शिष्ट और शालीन तरीके से किया है। शायद छायावादियों में अकेली कवयित्री होने के कारण उन्होंने अपनी प्रेम और सौन्दर्य की कविताएँ मर्यादा के आवरण में ढँक कर लिखी हैं। उनका अज्ञात प्रियतम रहस्य के आवरण में आता है –“रजत रश्मियों की छाया में धूमिल घन-सा वह आता” अथवा “करुणामय को भाता है तम के परदे में आना” आदि। महादेवी अपने प्रिय के आगमन की कामना करते हुए कहती हैं –
“यदि तुम आ जाते इक बार, सुख की कलियाँ दुख के काँटे पथ में बिछ जाते बन पराग”महादेवी वर्मा की कवितओं में मन की गहनतम अनुभूतियों की अभिव्यक्ति मर्मस्पर्श रूप में हुई है। प्रेम और श्रृंगार के भाव को मर्यादित तरीके से व्यक्त किया गया है। महादेवी ने शुचिता का ध्यान हमेशा रखा है। भाव, भाषा, प्रतीक एवं आलंकरिकता हर दृष्टि से महादेवी की कविताएँ उत्कृष्ट हैं। गीतों में तो लगता है महादेवी के मन की पीड़ा स्वतः बह पड़ी है। मानो यह पीड़ा एक ऐसी दीपशिखा है जो उनके मन में निर्धूम जला करती है और जिसकी खुशबू का अहसास हर पाठक करता है, क्योंकि यह पीड़ा केवल महादेवी की न होकर हम आप सबकी हो जाती है।
सन्दर्भ – १ – आरोह –भाग २ पृष्ठ-६९





Mahadevi Verma (1907-87) was educated in Allahabad, where she founded the 'Prayag Mahila Vidyapitha', promoting the education of girls. An active freedom fighter, Mahadevi Verma is regarded as one of the four pillars of the great Romantic movement in modern Hindi poetry, Chayavada, the remaining three being Suryakant Tripathi 'Nirala', Jaishankar Prasad and Sumitranandan Pant. She is renowned for her book of memoirs, Atita Ke Chalcitra (The Moving Frames of the Past) and Smriti Ki Rekhayen (The Lines of Memory). Her poetic canvas boasts Dipshikha (The Flame of an Earthen Lamp, 1942), a book comprising fifty one lyrics, all of which carry the maturity of expression and intense mystical quality peculiar to this great artiste. Her mysticism led to the birth of a movement called Rahasyavada. Mahadevi Verma has often been compared with Mira Bai, the great 16th century devotional poetess, in her lyrical mysticism and deep devotional offerings to the Almighty. She was the first woman to be made a Fellow of the Sahitya Akademi, in 1979.