Monday, August 27, 2007

परिचय


नाम : डॉ. हृदय नारायण उपाध्याय
जन्म: ०१ जुलाई १९६२ को चन्दौली जिले के एक गाँव फुलवरिया में।
शिक्षा: काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हिंदी में स्नातकोत्तर परीक्षा में सर्वोच्च अंक प्राप्त करने के बाद ”हिंदी की प्रगतिशील आलोचना में ”द्वंद्व” विषय पर शोध प्रबंध प्रस्तुत किया।
रचना कर्म : कविता, समीक्षा, निबंध, एकांकी का।
प्रकाशन : ‘व्याकरण कौमुदी‘ कक्षा एक से लेकर आठ तक की कक्षा के लिए व्याकरण की पुस्तक। प्राईमरी शिक्षक, शिराजा, कहानीकार, साहित्य दर्पण, साहित्य मंजरी, संगम, व्यंजना प्रज्ञा, विविध भारत, सृजन और अभिव्यक्ति आदि पत्रिकाओं में निबंध समीक्षा एवं कविताएँ प्रकाशित। इसके अतिरिक्त नवभारत, दैनिक भास्कर, स्वतंत्र मत, जे वी जी टाइम्स आदि समाचार पत्रों में आलेख समीक्षाएं एवं कविताएँ प्रकाशित।
प्रसारण : आकाशवाणी अम्बिकापुर, रीवा एवं जबलपुर से कविताओं और चिंतन का प्रसारण।
सम्प्रति :

स्नातकोत्तर शिक्षक (हिन्दी), केन्द्रीय आयुध निर्माण, भुसवाल, ज़िला जलगाँव, महाराष्ट्र।
सम्पर्क : upadhyayhn@yahoo.कॉम




महादेवी वर्मा :- दिव्य अनुभूतियों की निर्धूम दीपशिखा
डॉ. हृदय नारायण उपाध्याय

आधुनिक हिन्दी काव्य साहित्य में महीयसी महादेवी वर्मा का व्यक्तित्व विराट एवं उनका कृतित्व बहुआयामी है। चिन्तन एवं सृजन की सुचिता महादेवी के साहित्य का मूलाधार है। अगर उनके काव्य साहित्य में भावनाओं की गहराई एवं दार्शनिकता है, तो उनके गद्य साहित्य में मानव मात्र ही नहीं वरन्‌ मानवेतर जगत कल्याण की भी चिन्ता दिखाई पड़ती है। यानि ’हितेन सह साहितम्‌ तस्य भावः साहित्यम्‌’ के आदर्श मानक पर महादेवी का साहित्य पूरी तरह से खरा उतरता है। महादेवी का उद्देश्य स्वान्तः सुखाय न होकर सर्वजन हिताय एवं सर्वजन सुखाय है। साहित्य सृजन द्वारा समाज सेवा एवं उदात्त मानवीय मूल्यों का प्रसार महादेवी का उद्देश्य रहा है।
नारी शिक्षा के प्रसार की ललक महादेवी में प्रारम्भ से ही थी। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से वैदिक साहित्य पर वे उच्च अध्ययन करना चाहती थीं, लेकिन महिला होने के कारण उन्हें वेदाध्ययन की अनुमति नहीं मिली। यह मलाल ने महादेवी वर्मा को हतोत्साहित नहीं किया वरन्‌ नारी शिक्षा के प्रसार के संकल्प के रूप में उनके भीतर पनपा। जिसकी परिणति ’प्रयाग महिला विद्यापीठ’ की स्थापना के रूप में सामने आयी। इस शिक्षण संस्था का योगदान नारी शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय रहा है। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की पौत्रियों ने भी इसी विद्यापीठ से उच्च शिक्षा ग्रहण की। महादेवी के मन में उच्चशिक्षा की गुणवत्ता को लेकर उँचे आदर्श थे। उनकी सोच थी कि उच्च शिक्षा प्राप्त विद्यार्थी का मन और मस्तिष्क पूर्णतः विकसित हो। उनमें उदात्त मानवीय मूल्यों का समावेश हो। मानव समुदाय में वह अपनी अलग पहचान बना सके। महादेवी ने इस सन्दर्भ में लिखा भी है –

“संसार के मानव-समुदाय में वही व्यक्ति स्थान और सम्मान पा सकता है, वही जीवित कहा जा सकता है जिसके हृदय और मस्तिष्क ने समुचित विकास पाया हो और जो अपने व्यक्तित्व द्वारा मनुष्य समाज से रागात्मक के अतिरिक्त बौद्धिक सम्बन्ध भी स्थापित कर सकने में समर्थ हो।”—

उच्चशिक्षा प्राप्त हर विद्यार्थी से महादेवी वर्मा ऐसी ही योग्यताओं की अपेक्षा करती थीं। प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्राचार्या के रूप में महादेवी ने ऐसी ही शिक्षा प्रदान कराने का प्रयास किया है। आज़ादी के बाद शिक्षा क्षेत्र में फैले भ्रष्टाचार एवं आयी गिरावट से वे काफी आहत महसूस करती थीं। उनके मन की यह पीड़ा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के नवें दशक के एक दीक्षान्त समारोह में उस समय सामने आयी, जब वे मुख्य अतिथि का सम्बोधन दे रही थीं। महादेवी ने इस पीड़ा को इन शब्दों में व्यक्त किया था – “आज कालेज एवं विश्वविद्यालयों में विद्यार्थी अग्नि के स्फुलिंग के रूप में प्रवेश करते हैं लेकिन उच्च डिग्री प्राप्त करते-करते वे राख बनकर निकलते हैं।” निश्चय ही महादेवी की यह पीड़ा उच्च शिक्षण संस्थाओं की कार्यप्रणाली पर एक तल्ख़ टिप्पणी थी, जिसमें पूरी शिक्षाव्यवस्था के ताने-बाने को नये सिरे से सुधारने की जरूरत महादेवी ने महसूस की थी।

आज स्त्री-विमर्श की चर्चा हर ओर सुनाई पड़ रही है। महादेवी ने इसके लिए पृष्ठभूमि बहुत पहले तैयार कर दी थी। सन्‌ १९४२ में प्रकाशित उनकी कृति ’श्रृंखला की कड़ियाँ’ सही अर्थों में स्त्री-विमर्श की प्रस्तावना है जिसमें तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों में नारी की दशा, दिशा एवं संघर्षों पर महादेवी ने अपनी लेखनी चलायी है।

महादेवी वर्मा ने कई मर्मस्पर्शी संस्मरणों एवं रेखाचित्रों की भी रचना की है। महादेवी के संस्मरण हिन्दी साहित्य जगत में अपनी अलग पहचान रखते हैं। संस्मरण के केन्द्र में मानव हो अथवा मानवेतर जगत से सम्बद्ध कोई प्राणी, उसके चित्रण में महादेवी की करुणा स्वतः फूट पड़ी है। रेखाचित्र एवं संस्मरणों की रचना में महादेवी का कौशल साहित्य-जगत में एक सफल गद्यकार के रूप में उनकी छवि निर्मित करता है। उनकी कृतियाँ स्मृति की रेखाएँ, अतीत के चलचित्र, पद्य के साथी, श्रृंखला की कड़ियाँ और मेरा परिवार को पढ़कर यह अन्तर करना मुश्किल हो जाता है कि महादेवी को कवयित्री कहा जाय अथवा कुशल गद्यकार। निसर्गतः कवयित्री होने के कारण महादेवी के गद्य में भावनाओं की गहराई एवं भाषा में लालित्य विद्यमान है। संस्कृत की अध्येता होने के कारण उनकी भाषा प्रांजल एवं संस्कृतनिष्ठ है। लेकिन संस्कृतनिष्ठ भाषा होने पर भी उसमें प्रवाह है। क्योंकि महादेवी ने आवश्यकतानुसार देशज शब्दों एवं लोक मुहावरों का भी प्रयोग किया है जिस कारण भाषा में कहीं ठहराव नहीं दिखाई पड़ता। उनके संस्मरणों को पढ़ने से यह लगता है कि उनकी लेखनी मानो वह पारस है जिसके स्पर्श से हर वस्तु कंचन बन जाती है। गिल्लू, सोना, नीलू, निक्की रोजी और रानी ये सामान्य प्राणी न होकर हमारे आपके बीच के सम्बन्धी बन जाते हैं आत्मीय बन जाते हैं। इनका रहना हमें आह्लादक बनाता है तो इनका असमय जाना हमें दुखी भी करता है। मानवेतर प्राणीयों पर लिखे उनके संस्मरणों और रेखाचित्रों को पढ़्ते समय महादेवी की सूक्ष्म निरीक्षण एवं मर्मभेदी दृष्टि का ज्ञान होता है, जहाँ वे पशु मनोविज्ञान का भी विश्लेषण करती हैं। इस प्रकार वे साधारण चरित्रों में भी असाधारणता का संधान कर लेती हैं। महादेवी के इन संस्मरणों ने हिन्दी साहित्य पर ऐसा प्रभाव डाला कि संस्मरणों और रेखाचित्रों के लिए महादेवी ने नये क्षितिज का उद्‌घाटन किया।

’छायावाद’ आधुनिक हिन्दी काव्य का स्वर्णयुग है। इसके चार स्तम्भों में से महादेवी एक हैं। इनकी कविताओं में एक ओर यदि भावनओं की गहराई है तो दूसरी ओर आध्यात्मिक चिन्तन की उँचाई भी है। कवितओं का मूल-स्वर मन की वेदना एवं पीड़ा है जिसका निवेदन महादेवी ने रहस्यवादी तरीके से किया है – “मैं नीरभरी दुख की बदरी।” महादेवी का सम्बोधन-पुरुष लगता है लोक से परे कोई अलौकिक सत्ता है। अपनी प्रेमानुभूतियों की अभिव्यक्ति महादेवी ने बड़े ही शिष्ट और शालीन तरीके से किया है। शायद छायावादियों में अकेली कवयित्री होने के कारण उन्होंने अपनी प्रेम और सौन्दर्य की कविताएँ मर्यादा के आवरण में ढँक कर लिखी हैं। उनका अज्ञात प्रियतम रहस्य के आवरण में आता है –“रजत रश्मियों की छाया में धूमिल घन-सा वह आता” अथवा “करुणामय को भाता है तम के परदे में आना” आदि। महादेवी अपने प्रिय के आगमन की कामना करते हुए कहती हैं –

“यदि तुम आ जाते इक बार, सुख की कलियाँ दुख के काँटे पथ में बिछ जाते बन पराग”
महादेवी वर्मा की कवितओं में मन की गहनतम अनुभूतियों की अभिव्यक्ति मर्मस्पर्श रूप में हुई है। प्रेम और श्रृंगार के भाव को मर्यादित तरीके से व्यक्त किया गया है। महादेवी ने शुचिता का ध्यान हमेशा रखा है। भाव, भाषा, प्रतीक एवं आलंकरिकता हर दृष्टि से महादेवी की कविताएँ उत्कृष्ट हैं। गीतों में तो लगता है महादेवी के मन की पीड़ा स्वतः बह पड़ी है। मानो यह पीड़ा एक ऐसी दीपशिखा है जो उनके मन में निर्धूम जला करती है और जिसकी खुशबू का अहसास हर पाठक करता है, क्योंकि यह पीड़ा केवल महादेवी की न होकर हम आप सबकी हो जाती है।

सन्दर्भ – १ – आरोह –भाग २ पृष्ठ-६९
परिचय


नाम : मुरली मनोहर श्रीवास्तव
जन्म तिथि : 18 मई 1964
पिता का नाम : श्री विजय कुमार श्रीवास्तव
जन्म स्थान : इलाहाबाद - उ.प्र.
शिक्षा : बी ई (मैकेनिकल इन्जीनयरिंग)
कार्यरत :

एन टी पी सी लिमिटेड – अभियंता के पद पर
प्रकाशन : १००० से अधिक रचनायें राष्ट्रीय सहारा, नवभारत टाईम्स, पंजाब केसरी, अमर उजाला सहित विभिन्न राष्ट्रीय पत्रो में प्रकाशित।
कविता संग्रह– सत्य जीतता है – हिन्दी अकादमी दिल्ली से 1999 में प्रकाशित।
इ-मेल : murlimanohars@yahoo.com, murlimanohars@gmail.com
ब्लॉग :
hhttp://murlimanoharkeekavita.blogspot.कॉम


सेंसेक्स और चुनाव
मुरली मनोहर श्रीवास्तव

आजकल चुनाव कब होते है और कब रिजल्ट आता है पता ही नहीं चलता। कौन जीता कौन हारा यह बात तो छोड़ ही दीजिये। इस समय सेंसेक्स इम्पार्टेंट है। हर ऐरा गैरा नत्थू खैरा मुँह उठाये शेयर ब्रोकर बना बैठा है, इतना ही नहीं ठेले वाले भी ब्लू चिप शेयरों के म्युचुअल फंड में इंवेस्ट कर रहे हैं कल हमारे मुहल्ले का रिक्शे वाला टी सी एस और रिलायंस का रेट पूछ रहा था। मैं चौका तो वह बोला, साहब मिड कैप के दस शेयर लिये थे पिछले महीने की बचत से, सोच रहा हूँ इनफोसिस और टेल्काम कुछ नीचे गिरे तो दो चार शेयर डाल लूँ। वैसे सीमेंट और टेक्नालाजी के शेयरों के बारे में आपकी क्या राय है?

मुझे लगा मैं चक्कर खा कर गिर पड़ूँगा, इतना ज्ञान तो मुझे भी नहीं है शेयर मार्केट का, दूसरे मैं खुद रिक्शे पर आइडिया लेने बैठा था पर यह तो मुझसे अपना ही समान्य ज्ञान बढ़ा रहा है। वैसे भी आजकल हालात इतने बुरे हैं कि चाय पान की दुकान पर या मजदूरों की बस्ती में समय गुजार कर किसी नये विचार का संचार नहीं होता, इस देश में गरीबी और भ्रष्टाचार का इतना अधिक दोहन हो चुका है कि इस विषय में कुछ कहते ही पब्लिक हँसने लगती है, उसे लगता है यह राइटर नया है और अपने लिये जगह तालाश रहा है। भला इसमें नया क्या है रात दिन तो टी वी वाले गरीबी ग्लैमर और भ्रष्टाचार का लाइव टेलीकास्ट कर रहे है अभी तक तक तो इसकी सेहत पर कोई फर्क पड़ा नहीं।

मैं अपने मसाले के चक्कर में था। मैंने बात का रुख शेयर और सेंसेक्स से मोड़ कर चुनाव की ओर किया।

इस बार कौन लड़ रहा है तुम्हारे क्षेत्र से, मैंने पब्लिक का प्रिय विषय टच करने की कोशिश की।

क्या हमारे क्षेत्र में चुनाव हो रहे हैं हमें पता ही नहीं। अच्छा हुआ आपने बता दिया वर्ना हमें तो पता ही नहीं चलता। अजीब हालत है जब इसे चुनाव का पता नहीं तो वोट क्या डालेगा।

क्या बात करते हो अरे पूरी की पूरी राष्ट्रीय टीम लगी है एक दल की और दूसरे सभी दल एक उम्मीदवार के खिलाफ दूसरे नम्बर की लड़ाई लड़ रहे है।

अच्छा, वह आश्चर्य प्रकट करता हुआ बोला।

मुझे खीझ पैदा होने लगी,

क्यों कोई आया नहीं क्या वोट माँगने?”

बाबूजी अब आपसे क्या छुपाना कोई हारे कोई जीते और किसी की सरकार बने क्या फर्क पड़ता है। अब तो मैंने भी बड़े लोगों की तरह वोट डालना और पालिटिक्स में इंटरेस्ट लेना छोड़ दिया है। वो सेल के शेयर का क्या रेट चल रहा है आजकल और पब्लिक सेक्टर में इंवेस्ट्मेट कैसा रहेगा?

वह फिर काम की बात पर लौटता हुआ बोला।

मैंने कहा, तुम रिक्शा चलाना छोड़ कर शेयर ब्रोकर क्यो नहीं बन जाते।

बाबूजी आप तो मजाक करते हैं मुझे कम्पुटर देखना और माउस पकड़ना कहाँ आता है, हाँ, हमने अपने बेटे को शेयर ब्रोकर के सब ब्रोकर के यहाँ फिट करा दिया है। आजकल वही उसके चेक इकट्ठा करता है और कमीशन से नई बाइक पर चलता है वह भी इंट्रेस्ट फ्री लोन पर खरीदी है उसने, कह रहा था मैं भी इसे चला कर धोनी बनूगा। वही उसका आईडल है। उसी के कहने पर तो मैंने डी मैट खोला है।

देश में प्रगति का रेट देख कर मैं परेशान हो उठा मैं चाहता हूँ कि चुनाव और पालिटिक्स पर बहस हो और वह है कि मार्केट से नीचे ही नहीं उतर रहा है। मुझे लगा मैं अपना एटीच्यूड़ बदल दूँ।

मैंने पूछा, किस बैंक का क्रेडिट कार्ड दिलाया है बेटे ने?

उसकी बाँछे खिल गयीं, अरे साहब मान गये प्रायिवेट बैंकिंग वालों को मैंने अँगूठा एक कार्ड के लिये लगाया था पर उन्होंने दो भेजा है एक मेरा एक राम प्यारी (मेरी घराणी) का।

क्या क्या खरीदा उससे, मैंने जोड़ा।

हें हें अब आपसे क्या छुपाना कल गया था शापिंग माल में, धोती कुर्ता और गमछा मिला ही नहीं क्या करता, आप माल वालों को समझाइये कि जिस वर्ग को क्रेडिट कार्ड बंट रहा है वह जींस टी शर्ट नहीं कुर्ता खरीदता है वह भी मोटे कपड़े का सो अगर वे अपना बिजनेस बढ़ाना चाहते हैं तो बंडी और गमछा बेचें।

मुझे उसकी बात सुन कर लगा वाकई देश में चल रही प्रगति की नयी बयार में चुनाव बेमानी हो गया है और सेंसेक्स महत्वपूर्ण।

Sunday, August 26, 2007

परिचय



नाम : शबनम शर्मा
जन्म : जनवरी 20,1956, जन्म स्थान: नाहन
शिक्षा : बी.ए., बी.एड.
सम्प्रति : अध्यापन
उद्देश्य : सरल भाषा में अपनी आवाज़ जन-जन तक पहुँचाना व नए लेखकों प्रोत्साहन देना। समाज को काव्य व लेखन कला से अवगत करवाना व अपने में छुपी समस्त कला व अनुभूतियों को जनसम्पर्क तक पहुँचाना।
प्रकाशन : अनमोल रत्न (काव्य संग्रह), काव्य कुँज (काव्य संग्रह)
करीब 1300 ग़ज़लें, कवितायें, 10 कहानियाँ, 10-12 लघुकथायें और 20 के करीब ज्वलंत मुद्दों पर लेख।
प्रकाशित: समाचार पत्रों में - दैनिक ट्रिब्यून, दिव्य हिमाचल, अजीत समाचार, भास्कर, राँची एक्सप्रैस, गिरीराज, श्रोता समाचार, हिमवंती, हिम सूर्य, हिम सत्ता, इण्डिया गैप्स टुडे और सामाजिक आक्रोश
पुस्तकें: आइना-ए-ग़ज़ल (बम्बई), सर्जक (वियोग), झरोखा-2000 (हैदराबाद), संकल्पना (प्रतापगढ़), सहर (प्रतापगढ़), प्रवाह (रामपुर), काव्य रश्मि (नाहन), अभियान (बम्बई), गंगोत्री (बालाघाट), शताब्दी रत्न निदेशिक (पानीपत), समर्थन (नाहन), अमृत कलश (खंडवा) और हे मातृभूमि (नैमिश्रणाय)
पत्रिकायें: हतिगन्धा (पंचकूला), जगमगदीप (अलवर), फ्रिकरोफन (शिमला), विपाशा (शिमला), समाज प्रवाह (बम्बई), रैन-बसेरा (अहमदाबाद), प्रगति पथ (बुलन्द शहर), शुभ तारिका (अम्बाला), राजकला (लखनऊ), हिम ज्योति (शिमला), डैफोडिल्ज़ (नाहन), चौगान(नाहन), सुरभि (नाहन), सौहार्द (इलाहाबाद), प्रत्याक्षी, नालन्दा दर्पण (नालन्दा), पत्रकार सुमन (प्रतापगढ़), वाभंगी (मथुरा), गंगोत्री (बालाघाट), समर्थन, मरु-गुलशन (जोधपुर), त्रिवेणी साहित्य (गाज़ियाबाद), रेणुका स्मारिका (रेणुका), अखिल भारतीय होम्योपैथिक पत्रिका (खुरजा), सरोपशा (दसूहा), नारी अस्मिता (बढ़ोदरा), सतयुग की वापसी (अलवर), भैरवसुख सागर (अहमदाबाद), शब्द (लखनऊ), सौगात (बारां), शिवम (भोपाल), सुरभि समग्र (लखनऊ), दस्तक (बहादुरगढ़) और संदर्भ (रांची), में ग़ज़लें कवितायें, लेख व कहानियों का प्रकाशन। करीब 600 कविताएँ, कुछ कहानियाँ, लघु कथाएँ उपर्युक्त पत्रिकाओं, अखबारों में प्रकाशित।
विशेष: स्वरचित भजनों की कैसेट बाज़ार में।
सफलता एवं सम्मान : शताब्दी रत्न (पानीपत), सुरभि साहित्य (बम्बई), आर्चाया (पानीपत), ग़ज़ल श्री (कप्तानगंज), महादेवी वर्मा सम्मान ( मथुरा), कवयित्री सम्मान (दिल्ली), काव्य महारथी (इलाहाबाद), कवयित्री सम्मान (स्टेपको, नाहन), कवयित्री सम्मान (कृपालशिला गुरुद्वारा, पाँवटा साहिब), ग़ज़ल रत्न (बम्बई), महिला रत्न (खंडवा), ’स्व. मुकीम पटेल सम्मान’ (बालाघाट, म.प्र.), ’साहित्य रत्न’ (राम साहित्य मंडल, नाहन), ’कवयित्री सम्मान’ (प्रतापगढ़), ’कवयित्री सम्मान’ (लायन्स कल्ब, नाहन), ’काव्य प्रज्ञ’(रामपुर यू.पी.), साहित्य कुम्भ "रत्न श्री", हिम आभा (रेणुका), रत्न श्री (बम्बई), उत्कृष्ट साहित्यिक सेवा हेतू कहानी महाविद्यालय अम्बाला से सम्मानित।
कवि सम्मेलन करीब 100 कवि सम्मेलनों में भागीदारी। स्थानीय, राज्य स्तरीय, राष्ट्र स्तरीय।
रुचि : ग़ज़लें लिखना व सुनना।

छुट्टियाँ
शबनम शर्मा

गरमी की छुट्टियाँ शुरू हो गईं थीं। बच्चे पूरा वर्ष इन छुट्टियों के सपने संजोए रहते हैं। संजीव को भी नानी के पास जाना था। संजीव को मामा ननिहाल ने आए। २-३ दिन वो चुप-चुप सा रहा। परन्तु धीरे-धीरे वो घर में व आस-पड़ोस के बच्चों के साथ घुल-मिल गया था। उसने विपुल को अपना दोस्त बना लिया था। विपुल संजीव को शाम ढले ही अपने खेतों की तरफ ले जाता। उसे ट्यूबवैल के पानी से नहलाता। दोनों दूर-दूर तक दौड़ते, खेलते, कभी खेतों से मक्की तोड़ते, तो कभी खीरे। झबुआ जो खेतों में ही रहता था, उन्हें मक्की भून कर खिलाता। लस्सी का गिलास देना तो कभी न भूलता। घर आकर भी रात ८-९ बजे तक संजीव गली में अपने दोस्त के साथ घूमता। घर में नानी उसे रात को कहानी सुनाकर सुलाना कभी न भूलती। पूरा दिन घर में रौनक सी रहती। मामा के बच्चों की भी छुट्टियाँ थी। मामी तरह-तरह के व्यंजन बनाकर बच्चों को खिलाती। दिन बीतते गये। संजीव को इतवार को जाना था परन्तु ये क्या शुक्रवार को ही उसके पिता ने ड्राइवर को गाड़ी देकर भेज दिया संजीव को लिवा लाने के लिये। संजीव का मन घर जाने को न था वो भागा-भागा विपुल के पास उसे अलविदा कहने गया परन्तु रो पड़ा। विपुल ने कहा, तुम्हें तो खुश होना चाहिए तुम अपने माता-पिता के पास जा रहे हो।

संजीव ने कहा, विपुल तुम्हें पता है मुझे पहली बार लगा कि बच्चे क्या-क्या करते हैं? मैं तो सुबह उठता हूँ, आया मुझे तैयार करती है, टिफिन देती है और ड्राइवर भैया स्कूल छोड़ आते हैं। स्कूल से वापस आकर टेबल पर पड़ा खाना अकेला खाता हूँ और फिर सो जाता हूँ। ४ बजे उठकर टी॰वी॰ देखता हूँ।

तुम्हारा कोई दोस्त नहीं, खेलने नहीं जाते? विपुल ने पूछा।

संजीव बोला, दोस्त तो हैं पर जाऊँ कैसे, बाहर से ड्राइवर भैय्या दरवाजे पर ताला लगा जाते हैं। शाम को ६ बजे मम्मी-पापा आते हैं और घर खोलते हैं। मुझसे कोई बात भी नहीं करता। उनके साथ ही ट्यूशन वाले सर आ जाते हैं, ८:३० पर वो जाते हैं और मैं सो जाता हूँ।

ये कहकर संजीव रो पड़ा, कहने लगा, विपुल, ये छुट्टियाँ अब कब आएँगी?

अनाथ
शबनम शर्मा

नीलम के ब्याह को चार बरस बीत गये थे। हर वक्त सबकी खोजी नजरें उसे परेशान करती रहती थीं। घर में सास, ननदें, पति सभी को एक बच्चे की इच्छा थी, जो नीलम पूरी न कर पा रही थी। आखिर एक फैसला लिया गया कि बच्चा गोद ले लिया जाये। अनाथालय से बेटी ले ली गई। रिश्तेदारों को निमंत्रण भेजे गये, बड़ी धूम-धाम से नामकरण किया गया। घर में रौनक आ गई। बच्ची की किस्मत ही बदल गई। हर वक्त किसी न किसी की गोद, सुन्दर तोहफे सब कुछ नन्हीं को मिलता। समय का पलटा, नीलम की तबीयत खराब हुई, डाक्टर ने बताया वो माँ बनने वाली है, नन्हीं के आते ही ये शुभ खबर, नन्हीं का लाड़ और परवान चढ़ गया। बेटा हुआ। घर में खुशियाँ भर गईं। पर नन्हीं, छोटे भाई के आते ही बड़ी दिखने लगी। नीलम का सारा ध्यान, प्यार बेटे पर आकर्षित हो गया। घर के दूसरे लोग भी पोते को पाकर निहाल थे। समय के साथ-साथ दोनों बड़े हुए। नन्हीं सरकारी स्कूल में पढ़ी व भाई कान्वेन्ट में। नन्हीं सबका भरपूर ध्यान रखती, खासकर अपने भाई का। परन्तु परिवार में कुछ उसे सदैव ही खटकता रहता। उसकी हर चीज अब सब पर बोझ बन गई थी। घर के काम का दायित्व उस पर बढ़ता ही जा रहा था जबकि भाई को एक शहजादे सी परवरिश मिल रही थी। घर में भाई का जन्मदिन था मैं भी निमंत्रित थी। अच्छा खासा इन्तजाम किया गया। नन्हीं भाग-भागकर काम कर रही थी, कि उसके हाथ लगने से केक के पास रखा फूलदान टूट गया। भाई ने आव देखा न ताव, नन्हीं के जोरदार तमाचा जड़ दिया। नन्हीं रो पड़ी। उसने भी भाई को धक्का दे दिया कि नीलम बिफर सी गई व खींचती सी नन्हीं को अन्दर के कमरे में ले गई। आवाज साफ थी, "तेरी इतनी हिम्मत, अनाथालय की लड़की, तुझे हमने घर दिया, नाम दिया, मेरे बेटे पर हाथ उठाती है।" मैं शून्य में ताकती रह गई, सोचती, नन्हीं क्या अब अनाथ नहीं है, अनाथालय में नहीं रहती।

सम्पर्क : shabnamsharma2006@yahoo.co.in

विश्वास

विश्वास
डॉ. मीना अग्रवाल

क्यों स्मिता! इस कर्मों मारी कुंती माँ पर क्या भूत-सवार हुआ कि कुत्ते वाले पापा जैसे बुढ्ढे से प्यार कर बैठी, इस बुढ़ापे में। रमोला ने आते ही बातचीत का सिलसिला शुरू कर दिया। रमोला का स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि वह इधर-उधर की बातों में अधिक दिलचस्पी लेती है। कॉलोनी की किस लड़की का प्रेम किससे चल रहा है? किस युवक ने किस युवती से चक्कर चला रखा है? कौन किसके साथ फ़रार हो गई शहर से? वह शहर में आए-दिन होने वाली ऐसी घटनाएँ ढूँढकर लाती है और देर तक बैठी उनकी समीक्षा करती रहती है। रमोला एक नर्स है और अवकाश का समय उसके लिए बतियाने का समय होता है। मेरा घर उसके घर के रास्ते में पड़ता है, इसलिए अक्सर वह यहाँ आ जाती है।

मैंने उसकी बात सुनी तो उत्तर देते हुए बोली, ‘तुम इस बात को यों भी तो कह सकती हो रमोला कि इस कुत्ते वाले पापा को इस बुढ़ापे में क्या सूझी कि कुंती माँ जैसी बुढ़िया को दिल दे बैठा।

हाँ! यूँ भी कहा जा सकता है।रमोला एक चंचल मुस्कान अधरों पर लाती हुई बोली, ‘नाक को सीधे पकड़ो या हाथ घुमाकर। बात तो एक ही है।

पिछले एक सप्ताह से कालोनी के लोग इस घटना पर आश्चर्य प्रकट कर रहे थे कि सत्तर साल की बुढ़िया शकुंतला अपना घर-बार छोडकर माइकिल जोसफ़ के यहाँ जाकर रहने लगी थी। माइकिल जोसफ़ की उम्र भी पिचहत्तर साल से कम नहीं थी। उसने एक नहीं, दो नहीं, पूरे तीन तगड़े कुत्ते पाल रखे थे, इसलिए कॉलोनी के लोग उसे कुत्ते वाले पापा के नाम से पुकारने लगे थे। जब भी वह अपने तीनों कुत्तों की जंजीर थामे घर से बाहर निकलता, लोग आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगते।

शकुंतला माँ अभी कुछ वर्ष पहले तक नारी निकेतन की प्रबंधिका थी। उसे अपने सरकारी कर्त्तव्यों से ज्यादा समाजसेवा के कामों में दिलचस्पी थी। सत्तर साल की उम्र पर पहुँच गई थी। इसलिए कालोनी और शहर के सभी परिचित लोग उसे कुंती माँ कहकर पुकारने लगे थे। वह अकेली और निःसंतान थी। जब वह अपने लंबे-चौड़े घर को छोड़कर कुत्ते वाले पापा के यहाँ चली आई तो इस घटना को लेकर लोगों में तरह-तरह की चर्चाएँ होने लगीं? कोई कुछ कहता, कोई कुछ। जितने मुँह, उतनी ही बातें थीं।

मैंने घटना में शामिल दोनों पात्रों की पृष्ठभूमि पर दृष्टि डालते हुए सोचा- ’है वास्तव में अजीब बात?’

तभी रमोला की आवाज मेरे कानों में आई, ‘क्यों स्मिता! क्या सत्तर-पिचहत्तर साल की उम्र में भी प्रेम का उफ़ान बाकी रह जाता है?’ वर-वधू दोनों के बाल बगुलों जैसे सफ़ेद, दोनों के चेहरों पर झुर्रियाँ पड़ी हुईं। न मुँह में दाँत, न पेट में आंत। ऐसे में चले हैं प्रेम करने। मत मारी गई है क्या दोनों की?’

रमोला अपनी बात कह चुकी तो मैंने इस चर्चा को हँसी में टालने की कोशिश करते हुए कहा, ‘पुराने जमाने के लोग जो कह गए हैं रमोला, इश्क़ न जाने जात-कुजात। अब तुम इसमें एक पंक्ति की वृद्धि और कर लो... अब इस कहावत को समय के अनुसार ढालकर कहो, इश्क़ न जाने जात-कुजात, प्रेम न जाने बूढ़ा गात।

रमोला ने यह सुना तो ठट्ठा मारकर हँसी, ‘बात तो तुमने सच कही है स्मिता। यह जमाना ही निर्लज्जता का है? न औरतों की आँख में लाज है, न मर्दों में कोई लिहाज।

रमोला अभी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाई थी कि मैंने उसे बीच में टोकते हुए कहा, ‘पर सुना है कुंती माँ कुत्ते वाले पापा की सेवा तन-मन से कर रही है दिन रात। देवता की तरह पूज रही है उसे। हर काम बैठे-बैठे हो रहा है बड़े मियाँ का। चलो, जवानी में असहनीय दुख झेले थे कुत्ते वाले पापा ने, बुढ़ापे में इसी बहाने कुछ आराम मिला।

यह तो तुम ठीक कह रही हो स्मिता। रमोला मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए बोली, ‘कुत्ते वाले पापा को तो मुफ्रत में घर-बैठे एक सेविका मिल गई। पर प्रश्न यह है कि कुंती माँ को इससे क्या मिला? दिनरात जुटी रहती है, बूढ़े की सेवा में। न समाज की चिंता, न धर्म का खयाल।

मैंने महसूस किया कि रमोला विषय को धार्मिक भेदभाव की तरफ़ मोड़ने का प्रयास कर रही है। मैंने टोका- मानव-सेवा के लिए किसी धर्म के साथ बँधे रहने की जरूरत नहीं होती है रमोला, और जहाँ तक प्रश्न प्राप्ति का है, माना कुंती माँ को धन के रूप में कुछ प्राप्त नहीं हुआ है, पर सेवा का आनंद अपने-आप में भी तो एक प्राप्ति ही है।

खाक पड़े ऐसी प्राप्ति पर।रमोला खीजकर बोली, ‘मौत के कुएँ में पाँव लटकाए बैठे हैं और चले हैं प्रेम करने? अब कोई संतान तो होने से रही, इस निःसंतान जोड़े के।

तुम बेकार की बात कह रही हो रमोला।मैंने उसके विचारों की दिशा बदलने का प्रयास किया.., ‘प्रेम हमेशा शारीरिक ही नहीं होता, कई बार मानसिक भी होता है, बहन।

मुझे लगा, रमोला मेरी बात सुनकर अवाक-सी रह गई। मैंने उसे गंभीरतापूर्वक समझाते हुए कहा, ‘कई बार हम लोग विषय को उसकी पूरी गहराई के साथ नहीं समझते हैं, इसलिए तरह-तरह के भ्रमों में पड़ जाते हैं, जबकि वास्तविकता कई बार कुछ और ही होती है।

रमोला ने मेरे संकेत पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। बोली, ‘वास्तविकता कुछ और नहीं है स्मिता बहन.. बस इतनी है कि एक सत्तर साल की बुढ़िया अपने से अधिक बुढ्ढे व्यक्ति को दिल दे बैठी और उससे संबंध स्थापित कर लिए।

मैं तुम्हारी बात से सहमत नहीं हूँ रमोला।मैंने एक बार फ़िर उसे समझाने की कोशिश करते हुए कहा- इसका निर्णय इतनी जल्दी नहीं किया जाता है, उन परिस्थितियों को भी देखा जाता है, जिसमें किसी व्यक्ति ने कोई ऐसा कदम उठाया, जो हमारी-तुम्हारी राय में उसे नहीं उठाना चाहिए था।

तो क्या तुम जानती हो, वे परिस्थितियाँ क्या थीं, जिनमें कुंती माँ ने अपना घर-द्वार छोडकर कुत्ते वाले पापा का हाथ थामना पसंद किया।रमोला ने मुझसे पूछा।

मैं अधिक नहीं जानती पर कल पिंटू के दादा कुत्ते वाले पापा की चर्चा करते हुए कह रहे थे।मैंने गोद में सो रहे पिंटू की पीठ सहलाते हुए कहा रमोला से, ‘वे कह रहे थे माइकिल जोसफ़ की धर्मपत्नी रोजी जोसफ़ एक सड़क दुघर्टना में जवानी में ही मर गई थी। तब उनके तीन संतानें थीं, तीन बेटे, स्टीफ़न, सायमन और क्रिस्टोफ़र...

पर स्मिता बहन! ये नाम तो उनके यहाँ पले हुए कुत्तों के हैं।रमोला ने मुझे बीच में टोकते हुए आश्चर्य व्यक्त किया।

हाँ! मैं जानती हूँ, माइकिल जोसफ़ ने यही नाम अपने कुत्तों के भी रखे हैं पर क्यों? आगे की बात सुनो।मैंने रमोला के आश्चर्य को दूर करने का प्रयास किया और अपनी बात आगे बढ़ाई, ‘पत्नी की मृत्यु के बाद माइकिल जोसफ़ ने दूसरा विवाह नहीं किया। वह पत्नी की इन तीनों निशानियों को छाती से लगाकर बैठ गए। उन्हें पाला पोसा, पढ़ाया, लिखाया।

मैंने कुत्तेवाले पापा की कहानी को यहीं छोड़कर रमोला से पूछा, ‘क्यों बहन, जिस व्यक्ति ने युवावस्था में बच्चों की खातिर दूसरा विवाह न किया हो, वह अब मौत के निकट आकर ऐसा क्यों कर रहा है?’

हाँ, यह बात तो सोचने की है स्मिता?’ रमोला ने अपने पहले मत के विरोध में सच्चाई प्रकट होते देखी तो जिज्ञासापूर्वक मुझसे पूछा, ‘फ़िर वे तीनों बेटे कहाँ गए माइकल जोसफ़ के? क्या वे भी मर गए? माइकिल जोसफ़ ने उनके नामों पर अपने कुत्तों का नाम क्यों रखा?’

मैंने महसूस किया, रमोला के स्वर में एक साथ सब कुछ जानने की उत्सुकता थी।

मैंने उसे बताया, ‘मैं भी इस बारे में बहुत अधिक नहीं जानती हूँ रमोला, पर पिंटू के दादा ने जो कुछ बताया था, वही दोहरा रही हूँ। उन्होंने बताया था कि जब माइकल जोजेफ़ की पत्नी का देहांत हुआ तब स्टीफ़न आठ साल का था, साइमन पाँच साल का और क्रिस्टोफ़र तीन साल का। तुम समझ सकती हो रमोला, इतनी कम उम्र के बच्चों को पालने-पोसने में कितना कष्ट उठाना पद्आ होगा बूढ़े जोसफ़ को।

हाँ तुम ठीक कहती हो स्मिता। पर जोसफ़ ने उसी समय पुनर्विवाह क्यों नहीं कर लिया था?’ एक स्वाभाविक-सा प्रश्न पूछा रमोला ने।

उसे यह भय रहा होगा कि स्टैप मदर कहीं इन बच्चों के साथ सौतेला व्यवहार न करे। इनके साथ अन्याय न हो!जोजफ़ की इस भावना को समझना मुश्किल नहीं है रमोला।

लेकिन आम पुरुष तो ऐसा नहीं कर पाते, स्मिता।रमोला यह कहते हुए आश्चर्य से भर गई थी।

हाँ! मैं भी यही समझती हूँ।मैंने उत्तर देते हुए कहा, मैं समझती हूँ जोसफ़ साधारण पुरुषों जैसा नहीं था। उसने बच्चों के लिए अपनी पूरी युवावस्था दाँव पर लगा दी।

मैंने अपनी बात जारी रखी, ‘पिंटू के दादा बताते थे कि बच्चों के युवा होने तक जोसफ़ ने न दिन को दिन समझा, न रात को रात। उसने माता और पिता दोनों का कर्त्तव्य निभाया। उन्हें माँ का प्यार भी दिया और पिता का दुलार भी।

पर वे तीनों गए कहाँ?’ बूढे जोसफ़ के साथ तो नहीं रह रहे हैं वे।रमोला ने यह सब जानने की इच्छा प्रकट की, ‘अच्छी नौकरियों पर लग गए तीनों। उनमें से एक इन दिनों राँची में है, दूसरा कलकत्ता में और तीसरा गोहाटी में।

क्या बूढ़े पिता की उनमें से कोई भी खबर नहीं लेता है?’ रमोला ने जिज्ञासा से भरा एक और प्रश्न किया।

पिंटू के दादा बताते थे कि’ - मैं अपनी धुन में कहती गई, ‘तीनों ने बारी-बारी से लवमैरिज कर अपना-अपना घर बसा लिया और बूढ़े पिता को यों भूल गए, जैसे उसने कभी उनके साथ कुछ किया ही न हो।

उफ़! इतना बड़ा त्याग करने वाले पिता के साथ बेटों का ऐसा व्यवहार?’ अनायास रमोला के मुँह से निकला।

मैंने उसकी बात सुनी और बूढ़े जोसफ़ की जीवन-गाथा को और आगे बढ़ाया, ‘तीनों बेटे मुँह मोड़ गए और बूढ़ा जोसफ़ जब उनकी ओर से बिलकुल निराश हो गया तो उसने हताश होकर तीन कुत्ते पाल लिए।

आदमी जब मानव जाति से निराश हो जाता है तो शायद वह पशु-पक्षियों की ओर ही आकर्षित होने लगता है।मैंने पिंटू के दादा से सुनी गाथा को एक क्षण भूलकर जोसफ़ की घटना पर एक मनोवैज्ञानिक टिप्पणी की।

हाँ! हो सकता है ऐसा हो।रमोला ने मुझसे थोड़ी सहमति व्यक्त करते हुए कहा।

पिंटू के दादा बता रहे थे-मैं लौटकर पुनः अपने ससुर के प्रसंग पर आ गई। जोसफ़ ने पता नहीं किस भावना के वशीभूत होकर इन कुत्तों के नाम भी अपने बेटों के नाम पर स्टीफ़न, सायमन और क्रिस्टोफ़र ही रखे। वह अब इनसे भी इतना ही प्यार करता है जैसा कोई अपनी संतानों से करता है।

शायद यह सब निराशा में हुई प्रतिक्रिया के कारण ही किया होगा माइकल जोसफ़ ने।रमोला वास्तविकता को समझते हुए बोली, मैंने अपना वक्तव्य आगे बढ़ाया। पिंटू के दादा बता रहे थे कि माइकल जोसफ़ अब इन कुत्तों को हर समय अपने साथ रखता है। अपने साथ ही खिलाता-पिलाता है, लंच भी और डिनर भी। कुत्तों से उसे वह प्यार मिल रहा है, जो पुत्रों से मिलना चाहिए था।

मानवता से निराश हो जाने की बहुत ही हृदयविदारक घटना है यह।रमोला ने जोसफ़ के अतीत से परिचित होते हुए कहा।

हाँ! मैंने उत्तर दिया और जोसफ़ के संदर्भ को आगे बढाया, ‘पिछले दिनों जब जोसफ़ को टायपफाइड हो गया तो उसके पालतू कुत्ते जोसफ़ की कोई मदद नहीं कर सके। वे न दवा ला सकते थे, न डाक्टर को बुला सकते थे। तीनों उदास उदास मन से जोसफ़ के सिरहाने बैठे रहते, भूखे प्यासे। वे प्यार तो कर सकते थे अपने स्वामी को, पर बीमारी में देखभाल नहीं कर सकते थे उसकी।

बात पूरी नहीं हुई थी कि रमोला ने बीच में हस्तक्षेप करते हुए कहा- इसी दयनीय स्थिति में बूढ़ी माँ कुंती आ गई होगी बीमार और बूढ़े जोसफ़ के पास।

हाँ! निस्संदेह ऐसा ही हुआ होगा।मैंने रमोला की बात का समर्थन किया। तभी द्वार पर आहट हुई। देखा जोसफ़ के पड़ोस में रहने वाली कुमकुम धीमी चाल से चली आ रही थी। मैंने उसका स्वागत करते हुए बैठने के लिए कहा।

कुमकुम कुर्सी पर बैठती हुई बोली, ‘जोसफ़ ने स्वस्थ होते ही अपने कुत्तों को बेच दिया। लेकिन उनके नाम वापस ले लिए। अब वह कुंती माँ के साथ खुश है।

मैंने सुना तो अनायास मेरे मुँह से निकला, ‘शायद अब मानवता पर उसका विश्वास लौट आया है।किसी ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया और अब हम तीनों किसी और विषय में वार्ता करने लगे।

Thursday, June 7, 2007

कौन तुम मेरे ह्रदय मैं?

http://manaskriti.com/kaavyaalaya/kaun_tum_mere_hriday_mein.gif

महादेवी वर्मा - एक परिचय

Mahadevi Verma

Mahadevi Verma (1907-87) was educated in Allahabad, where she founded the 'Prayag Mahila Vidyapitha', promoting the education of girls. An active freedom fighter, Mahadevi Verma is regarded as one of the four pillars of the great Romantic movement in modern Hindi poetry, Chayavada, the remaining three being Suryakant Tripathi 'Nirala', Jaishankar Prasad and Sumitranandan Pant. She is renowned for her book of memoirs, Atita Ke Chalcitra (The Moving Frames of the Past) and Smriti Ki Rekhayen (The Lines of Memory). Her poetic canvas boasts Dipshikha (The Flame of an Earthen Lamp, 1942), a book comprising fifty one lyrics, all of which carry the maturity of expression and intense mystical quality peculiar to this great artiste. Her mysticism led to the birth of a movement called Rahasyavada. Mahadevi Verma has often been compared with Mira Bai, the great 16th century devotional poetess, in her lyrical mysticism and deep devotional offerings to the Almighty. She was the first woman to be made a Fellow of the Sahitya Akademi, in 1979.

Her book Sketches from My Past : Encounters with India's Oppressed (translated by Neera Kuckreja) is a powerful collection of real-life portraits of oppressed women and other deprived members of society. From the jacket: " Her intimate and affectionate sketches of women, men and children she personally knew, reveal her compassion for the desperate plight of the disinherited poor in India, as well as her intense rage at those who exploit women and the dispossessed. Whether it is Binda, the lonely orphan girl victimised by her step-mother; Bhabi the emotionally and physically abused child widow barred from any contact with the outside world; or Sabiya the poor sweeper woman deserted by her husband shortly before the birth of their child, the subjects of Mahadevi's memoir convey her universalist vision to resurrect the inner dignity of "these wounded and mauled lives". Her compelling memoir transcends the borders of culture and time."

Forge a feminist path. A profile from indiatogether.org.

Here is an example of her work, along with its english translation. Its called "tum mujhme priya, phie parichay kya(Why an introduction, since you are within me)

 Tum mujhme priya, phir parichay kya,
tarak mein chhavi,
praano.N mein
smriti,
palako.N mein neerav pad ki gati,
laghu ur mein pulako.n ki sansriti,
bhar laayi h.Un teri chanchal,
aur karoo.N jag mein sanchay kya!

Why an introduction dear, you are within me,
reflections on starry nights, memories of a life,
creations of life in short spells, eyes notice
creations of life in short spells, eyes notice
gentle footsteps!
I don't much to treasure anymore,
you are the treasure I have in me.

Tera mukh sahaas arunoday,
parchhaayi rajani vishaadmay,
wah jaagrati, wah nee.Nd swapnamay,
khel-khel, thak-thak sone de,
main samjhoo.Ngi srishti pralay kya!!

Your dazzling, radiant smile like sunrise
Is the reflection of fragrant sorrow,
it is consciousness, and dreamy slumber,
Let me tire and sleep incessantly, for
Would I understand the creation, big-bang!!

Chitrit tu, main hoo.N rekha- kram,
madhur raag tu, main swar-sangam,
tu aseem main seema ka bhram,
kaaya-chhaya mein rahasmay,
preyasi priyatam ka abhinay kya!!

You are drawn, I am just an outline,
you are the sweet melody, I am just a string of
notes,
you are limitless, I am but an illusion of
limits,
In the secrecy of real image-reflection,
why enact to be lovers!!!

Tum mujhme priya, phir parichay kya!!!

Why an introduction, since you are within me.

पंथ होनe दो अपरिचित

http://manaskriti.com/kaavyaalaya/panth_hone_do_aparichit.gif