Tuesday, May 29, 2007

सात छुटकुल्ले

सात छुटकुल्ले

लैला मजनूँ

मेरे एक मित्र ने, मुझसे यह कहा,
लैला ओ मजनू में, कोई फ़र्क नहीं रहा,
फ़र्क नहीं रहा, बाल लंबे या छोटे,
दोनों पहन सकते हैं, पाजामा कुर्ते
सर्जरी से अब, यह भी हो सकता है
लैला कभी मजनू, मजनू कभी लैला, बन सकता है।

मरीज़

बोला एक मरीज़ नर्स से, मुझे ठीक ना होना।
अच्छा लगता है मुझको तो, यहीं पड़े रहना।
यहीं पड़े रहना कि, तुमसे मुझे इश्क है।
बोली नर्स अरे! इसमें तो बड़ी रिस्क है!
तुम अब ठीक नहीं होंगे, मैंने जान लिया है।
डॉक्टर करता प्यार मुझे, उसने देख लिया है।

कैदी की सज़ा

कैदी को दी सज़ा जज ने, कान काट लेने की।
अर्ज़ करी कैदी ने जज से, सज़ा माफ़ करने की।
सज़ा माफ़ कर दो हजूर, मैं नहीं देख पाऊँगा।
आँखें तो हैं, जज बोला, क्या कानों से देखेगा?
कैदी बोला, सुनिए जज जी, मैं ये समझाता हूँ।
कानों पर ऐनक लगती है, तभी देख पाता हूँ।

वसूली

बाबू बोला खाना खाकर, मेरी जेब तो खाली।
होटल मालिक ने पीटा, और कर दी बेहाली।
और कर दी बेहाली कि, मारा उसको धक्का।
बैरे ने भी जाकर मारा, बड़े ज़ोर का मुक्का।
मालिक ने पूछा क्यों बे, तूने क्यों मारा था?
बैरा बोला मुझको अपना, टिप वसूल करना था।

पत्नी और रेडियो

पत्नी बोली, क्यों जी, क्यों मुझे बैर करते है?
मेरे आते ही कमरे में, रेडियो बंद करते हैं।
रेडियो बंद करते हैं, क्यों? मुझको बतलाइए।
पति बोला, एक बार में, एक ही सुनना चाहिए।
बोली पत्नी, मेरी बोली, क्या इतनी खलती है?
नहीं प्रिये! रेडियो से ज़्यादा, अच्छी लगती है।

एप्रिल फूल

बेटे ने मम्मी को एप्रिल फूल बनाया,
मैंने कुछ देखा है, मम्मी को बतलाया,
मम्मी को बतलाया, नौकर महरी को चूम रहा था
मम्मी ने डाँटा, क्यों रे, तू ऐसी हरकत करता था?
नौकर बोला, जी, मैं तो पूरे दिन बाहर घूमा था,
बेटा हँसा, एप्रिल फूल, महरी को पापा ने चूमा था।

अंग्रेज़ी नाम

हरी (मैं)से हैरी हुए, जौहरी हो गए जैरी
कजरी कैरी हो गई, लहरी हो गए लैरी
इतने तक तो ठीक था अंग्रेज़ी का संग
फूलचंद जी फूल हुए, बन गया एक व्यंग्य
बन गया एक व्यंग्य, जानकी जैनी हो गई
जगदीश्वर हुए जैक, रुकमनी रैनी हो गई
कहूँ बिंदल जी, नामों की हुई ऐसी खिल्ली
ललिता जी (पत्नी) कहलाएँगी अब मैडम लिल्ली।

बेलनटाइन

रिसर्च करने वालों ने अभी-अभी ये सिद्ध किया है,
कि वैलेंटाइन का जन्म भारत में हुआ है।
रिसर्च का कारण था,
बेलन जिसके साथ जुड़ा होगा,
उसका श्रीगणेश ज़रूर भारत में हुआ होगा।

शोध करने वालों ने पता लगाया,
गुजरात में इसकी जड़ को पाया।
क़रीब चार सौ वर्ष पहले, एक पटेल,
अपनी पटेलन को बहुत तंग करता था,
नतीजा आख़िर वही हुआ जो होना था।
तंग आकर पटेल ने बदला ले लिया,
पटेल को उसने अपने बेलन से बेल दिया।

पटेलन की बहादुरी की ख़बर,
पहले आस-पास, फिर पूरे गुजरात में फैल गई,
पटेलों की तो पूरी इज़्ज़त ही उछल गई।
घटना तो हुई, छिपा नहीं सकते थे,
अपनी मूँछें भी, झुका नहीं सकते थे,
इसीलिए, उन्होंने यह ख़बर फैलाई
कि, पटेल की हुई नहीं हुई पिटाई।
वारदात गुस्से में नहीं, प्यार में हुई है
बेलन की मार इकरार में सही है।
सभी औरतें बेलन से बार सकती है।
और, अपने प्यार को डज़हार कर सकती है।

तब से इस दिन को प्यार का दिन मान लिया,
पति ने पत्नी को उपहार और सम्मान दिया।
घटना के इस दिन को पर्व मान लिया गया।
सब शादीशुदा इस दिन को मनाने लगे,
बिना शादी वाले भी इसका फ़ायदा उठाने लगे।

जब भारत में अंग्रेज़ आए तो उन्हें यह पर्व भाया,
उन्होंने भी इसे मनाया, और इंग्लैंड तक पहुँचाया।
इस तरह, देश विदेश,
सब जगह इसे मनाया जाने लगा,
किंतु अपभ्रंश में बेलन टाइम के बजाय
बेलनटाइन कहलाने लगा।।

पत्नी से प्रॉबलम

पत्नी से प्रोबलम, पहली बार तब हुआ,
मक्खन की जगह मार्जरिन घर में जब हुआ।
दाल व सब्ज़ी में घी नहीं, रोटी रुखी, पराठे सूखे,
खिचड़ी में स्वाद नहीं, बिन घी, मसाले तीखे,
मिठाई पर रोक हुई, न लड्डू न पेड़ा,
जो खाओ उसी पर, खड़ा हुआ बखेड़ा।
दूध जब दो परसेंट आने लगा।

पत्नी को समझाया,
भारत में असली घी मुश्किल से पाते थे,
दूध वाला, दूध में पानी न मिला दे, अतः
सुबह तड़के भैंस के आगे खड़े हो जाते थे।
यहाँ सही दूध मिलता है, पतले पर क्यों जाते है,
शुद्ध मक्खन मिलता है, नकली क्यों लाते हैं?

वे बोली, देखते नहीं,
मदन मुरारी ने मार्जरिन खाना शुरू कर दिया है,
रुक्मनी ने असली कोक, कबसे नहीं पिया है।
लोग चीनी के बजाय, स्वीटनर लाते है,
आप है कि दो परसेंट पर बड़बड़ाते है।

फिर हमने समझाने की कोशिश की,
अपनी दलील कुछ इस तरह पेश की,

अमरीका में लोग, बड़े बिजनेस वाले हैं,
दूध में से पहले, कई तत्व निकाले है,
मक्खन और क्रीम अलग से बेचते हैं,
बचे हुए को दो परसेंट कह टेकते हैं,
आम के आम, गुठलियों के दाम हैं,
लोगों को बेवकूफ़ बनाने के काम हैं,

मार्जरिन तो घासलेट से भी गया बीता है,
भारत का गरीब, खाकर जिसे जीता है।

वह नहीं मानी,
कहने लगी, इन सब में कोलेस्ट्राल है,
हमने कहा, स्वाद का भी तो रोल है।
बाप दादों ने तो खूब घी पिया,
और, जीवन बड़े सुख से जिया।

हम बड़बड़ाए रहे,
न शराब पीते हैं और न सिगरेट,
पान व तंबाकू से, करते है हेट,
ले देके एक ही तो शौक है,
उस पर भी आपका प्रकोप है,

यदि खाने में इतनी और ऐसी व्याधा है,
तो प्राणी के मानव होने का क्या फ़ायदा है।
घास ही खा लेते,
पति बन कर, पापड़ तो न बेलते।

हम डट गए,
और ये कविता लिख डाली,
किंतु लगता है वह नहीं मानने वाली।




Raja Nanga Hai
Story about a king fond of wearing new cloths. Read more how two local thugs make fool him.
by Umashankarvashistha







May-2007








poor dedication




कवपि रिचय - चन्द वरदाई:
बहुमुखी प्रतिभा के धनी, चन्द वरदाई आदिकाल के श्रेष्ठ कवि थे। उनका जीवन काल बारहवीं शताब्दी में था। एक उत्तम कवि होने के साथ, वह एक कुशल योद्धा और राजनायक भी थे। वह पृथ्वीराज चौहान के अभिन्न मित्र थे। उनका रचित महाकाव्य "पृथ्वीराज रासो" हिन्दी का प्रथम महाकाव्य माना जाता है। इस महाकाव्य में ६९ खण्ड हैं और इसकी गणना हिन्दी के महान ग्रन्थों में की जाती है। चन्द वरदाई के काव्य की भाषा पिंगल थी जो कालान्तर में बृज भाषा के रूप में विकसित हुई। उनके काव्य में चरित्र चित्रण के साथ वीर रस और श्रृंगार रस का मोहक समन्वय है। पृथ्वीराज रासो के कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत हैं।


पृथ्वीराज रासो (अंश)

पद्मसेन कूँवर सुघर ताघर नारि सुजान।
ता उर इक पुत्री प्रकट, मनहुँ कला ससभान॥

मनहुँ कला ससभान कला सोलह सो बन्निय।
बाल वैस, ससि ता समीप अम्रित रस पिन्निय॥

बिगसि कमल-स्रिग, भ्रमर, बेनु, खंजन, म्रिग लुट्टिय।
हीर, कीर, अरु बिंब मोति, नष सिष अहि घुट्टिय॥

छप्पति गयंद हरि हंस गति, बिह बनाय संचै सँचिय।
पदमिनिय रूप पद्मावतिय, मनहुँ काम-कामिनि रचिय॥

मनहुँ काम-कामिनि रचिय, रचिय रूप की रास।
पसु पंछी मृग मोहिनी, सुर नर, मुनियर पास॥

सामुद्रिक लच्छिन सकल, चौंसठि कला सुजान।
जानि चतुर्दस अंग खट, रति बसंत परमान॥

सषियन संग खेलत फिरत, महलनि बग्ग निवास।
कीर इक्क दिष्षिय नयन, तब मन भयो हुलास॥

मन अति भयौ हुलास, बिगसि जनु कोक किरन-रबि।
अरुन अधर तिय सुघर, बिंबफल जानि कीर छबि॥

यह चाहत चष चकित, उह जु तक्किय झरंप्पि झर।
चंचु चहुट्टिय लोभ, लियो तब गहित अप्प कर॥

हरषत अनंद मन मँह हुलस, लै जु महल भीतर गइय।
पंजर अनूप नग मनि जटित, सो तिहि मँह रष्षत भइय॥

तिहि महल रष्षत भइय, गइय खेल सब भुल्ल।
चित्त चहुँट्टयो कीर सों, राम पढ़ावत फुल्ल॥

कीर कुंवरि तन निरषि दिषि, नष सिष लौं यह रूप।
करता करी बनाय कै, यह पद्मिनी सरूप॥

कुट्टिल केस सुदेस पोहप रचयित पिक्क सद।
कमल-गंध, वय-संध, हंसगति चलत मंद मंद॥

सेत वस्त्र सोहे सरीर, नष स्वाति बूँद जस।
भमर-भमहिं भुल्लहिं सुभाव मकरंद वास रस॥

नैनन निरषि सुष पाय सुक, यह सुदिन्न मूरति रचिय।
उमा प्रसाद हर हेरियत, मिलहि राज प्रथिराज जिय॥

- चन्द वरदाई

* * *

......श्री कृष्णम् समर्पयामी।


मैं,
मेरी सोच,

मेरे खयाल,
जीया हुआ हर दिन,
काटे गये महीने,
और बितायी हर साल।
हर हद तक गया अनुराग,
परिपक्वता,
और फिर चुंबक के एक से छोरों सा वैराग।
मेरा सारा आलस, सारे काम,
मेरे से टूटा और जुङा हर नाम,
कूट-कूट कर भरे व्यसन, वासना, दुर्विचार,
मेरा अहंकार,
हर दिन की जीत ,
हर रोज़ की हार,
मेरा प्रेम,
समर्पण,
मेरा जुङाव और भटकाव,
टूटन, तडपन खुद का चिंतन,
कंठ तक भरा रीतापन,
मजे में डूबी हर एक बात,
मुझे उठाने और गिराने मैं लगे सैंकङों हाथ,
उसकी नफरत, मेरा प्यार,
हर अनुभव, हर चोट, हर मार,
सारी प्राप्तियाँ, सारे आनंद, सारे सुकून,
मुझसे जुडा हर काला, सफेद, तोतई और मरुन,
मेरी सारी ताकत,
सारी खामी,
.....श्री कृष्णम् समर्पयामी।
umashankarvashistha