Tuesday, May 29, 2007

पत्नी से प्रॉबलम

पत्नी से प्रोबलम, पहली बार तब हुआ,
मक्खन की जगह मार्जरिन घर में जब हुआ।
दाल व सब्ज़ी में घी नहीं, रोटी रुखी, पराठे सूखे,
खिचड़ी में स्वाद नहीं, बिन घी, मसाले तीखे,
मिठाई पर रोक हुई, न लड्डू न पेड़ा,
जो खाओ उसी पर, खड़ा हुआ बखेड़ा।
दूध जब दो परसेंट आने लगा।

पत्नी को समझाया,
भारत में असली घी मुश्किल से पाते थे,
दूध वाला, दूध में पानी न मिला दे, अतः
सुबह तड़के भैंस के आगे खड़े हो जाते थे।
यहाँ सही दूध मिलता है, पतले पर क्यों जाते है,
शुद्ध मक्खन मिलता है, नकली क्यों लाते हैं?

वे बोली, देखते नहीं,
मदन मुरारी ने मार्जरिन खाना शुरू कर दिया है,
रुक्मनी ने असली कोक, कबसे नहीं पिया है।
लोग चीनी के बजाय, स्वीटनर लाते है,
आप है कि दो परसेंट पर बड़बड़ाते है।

फिर हमने समझाने की कोशिश की,
अपनी दलील कुछ इस तरह पेश की,

अमरीका में लोग, बड़े बिजनेस वाले हैं,
दूध में से पहले, कई तत्व निकाले है,
मक्खन और क्रीम अलग से बेचते हैं,
बचे हुए को दो परसेंट कह टेकते हैं,
आम के आम, गुठलियों के दाम हैं,
लोगों को बेवकूफ़ बनाने के काम हैं,

मार्जरिन तो घासलेट से भी गया बीता है,
भारत का गरीब, खाकर जिसे जीता है।

वह नहीं मानी,
कहने लगी, इन सब में कोलेस्ट्राल है,
हमने कहा, स्वाद का भी तो रोल है।
बाप दादों ने तो खूब घी पिया,
और, जीवन बड़े सुख से जिया।

हम बड़बड़ाए रहे,
न शराब पीते हैं और न सिगरेट,
पान व तंबाकू से, करते है हेट,
ले देके एक ही तो शौक है,
उस पर भी आपका प्रकोप है,

यदि खाने में इतनी और ऐसी व्याधा है,
तो प्राणी के मानव होने का क्या फ़ायदा है।
घास ही खा लेते,
पति बन कर, पापड़ तो न बेलते।

हम डट गए,
और ये कविता लिख डाली,
किंतु लगता है वह नहीं मानने वाली।


2 comments:

रवि रतलामी said...

आह!
आपने दुखती रग को छेड़ दिया.

लाजवाब, मजेदार रचना.

umashankar said...

Thanks Janab