Saturday, June 2, 2007

बेताल कथा

बेताल कथा

—अंशुमान अवस्थी


हर सफ़र की एक कहानी होती है और उस कहानी की एक शुरुआत भी, पर ज़िंदगी के सफ़र की कहानी की शुरुआत कहाँ से की जाय क्यों कि आमतौर पर उसकी तो शुरुआत ही गुम होती है। यह एक गंभीर समस्या है। हमने तो जब से होश सँभाला है अपने को सफ़र में ही पाया है। ख़ैर छोड़िए शुरुआत को, अब तो बस आप अंत का सोचिए। वैसे भी जब कोई कहानी शुरू होती है तो ख़त्म भी। पर ज़िंदगी की कहानी, अरे साहब इसमें तो इतने क्रमश: लगे होते हैं कि...अब हम आपको क्या बताएं... ख़ैर परेशान होने की बात नहीं है इस कहानी का अंत आपको इन्हीं पृष्ठों में कहीं न कहीं मिल ही जाएगा और यदि यहाँ नहीं तो कहीं और सही... कभी और सही।

कहते हैं कि पूत के पाँव पालने में ही नज़र आ जाते हैं। हमारे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। पर अपना परिचय देने से पहले व कहानी शुरू करने से पहले हम अपने खानदान वगैरह के बारे में बता दें ताकि पाठकों को ये मालूम हो जाए कि हम किस विरासत के मालिक है और परंपराओं में हमारा कितना विश्वास है।

हमारे दादा जी, सारे गाँव में शास्त्री जी के नाम से मशहूर थे पर शास्त्रों से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था। कहते थे कि शिक्षा व्यक्तित्व की दुश्मन होती है। उनका मानना था कि यदि हमारे पूर्वज वानर थे और मनुष्य का विकास उन्हीं से हुआ है तो अब इस विकास को क्या हो गया है, ज़ाहिर है जिस दिन से मनुष्य ने अध्ययन आदि करना शुरू किया उसका विकास रुक गया है। मानव जीवन में शिक्षा एक कृत्रिम आवश्यकता है और यही वजह है कि प्रकृति में कोई भी 'चेतन' (सिवाय मनुष्य के) इस दिशा में नहीं सोचता है। आख़िर शेर को शेर की तरह व्यवहार करने में कितनी पुस्तकों की सहायता होती है। जब तक वो जीवित रहे अपने सद्धांतों पर अडिग रहे। कहते थे कि कलम बंदूक से भी ख़तरनाक हथियार है इसलिए कभी हाथ मत लगाना।

अपने इन्हीं सद्धांतों की बदौलत हमारे दादाजी सांसद बनकर संसद तक घूम आए और ढाई साल बाद जब वो मध्यावधि चुनावों को कोसते हुए संसद से गाँव वापस आए तो इस अखंड विश्वास के साथ कि मनुष्य को वास्तव में किसी शिक्षा की आवश्यकता नहीं है (हमें नहीं लगता कि पाठकों को अपनी संसद के परिचय की तनिक भी आवश्यकता है)। उनके इन तर्कों को गाँव से लेकर दिल्ली तक, कभी कोई काट नहीं पाया।

देखिए बात कहाँ शुरू हुई थी और कहाँ मुड़ गई। भला परंपरा और संसद का भी कोई संबंध है। वहाँ तो प्रतिदिन नई परंपराएँ पड़ती हैं और अगले दिन टूट जाती हैं। तो हम बात कर रहे थे अपने दादाजी व उनके मानव जीवन तथा शिक्षा के प्रति अति विशिष्ट दृष्टिकोण की। अब जैसा कि हर युग हर परिवार में होता आया है, कोई न कोई विद्रोही प्रकृति का निकल ही आता है।

यही हाल था हमारे पिताजी का। यह तो पता नहीं की शिक्षा के प्रति उनका दृष्टिकोण क्या है क्योंकि उस विषय पर हमारी उनसे कभी बात नहीं हुई पर सुनने में आता है कि पढ़ाई लिखाई में उनकी रुचि कभी नहीं रही। अब चूँकि सुनने सुनाने पर ही हम भारतीयों का पूरा इतिहास क्या, पूरा का पूरा अस्तित्व ही आधारित है इसलिए अविश्वास की गुंजाइश रह नहीं जाती।

इतिहास की बात से याद आया कि न तो मैक्सम्युलर ने तब कोई छेड़खानी की होती और न ही अँग्रेजों ने बाद में कोई शैतानी तो यह दक्षिणपंथी ­ वामपंथी इतिहास का कोई झगड़ा भी न होता और न ही कुछ प्रतिशत पढ़े-लिखे लोगों को फालतू की मगज़मारी ही करनी पड़ती कि सभ्यता का विकास गंगोत्री से गंगासागर की तरफ़ हुआ है या फिर गंगासागर से गंगोत्री की ओर।

देखिए बात फिर मुड़ गई। अब क्या करें अपनी फितरत ही कुछ ऐसी है, हाँ तो पढ़ाई हमारे पिताजी ने अवश्य की। पढ़ाई उन्होंने हमारे दादाजी के ख़िलाफ़ विद्रोह की दुंदुभी बजाकर की जैसा कि आजकल हर टीनएजर करने पर तुला हुआ है। पर आजकल तो सब विद्रोह कर रहे हैं पढ़ाई कोई नहीं कर रहा। जब तक हमारे पिताजी ने बारहवीं पास नहीं कर ली हमारे दादाजी कुढ़ते रहे, जब उन्हें किसी तरह से विश्वविद्यालय में प्रवेश मिला तब दादाजी को यह सोच कर चैन आया कि अब तो उनका पुत्र नेतागीरी करके सारे खानदान का नाम रोशन करेगा। वैसे भी विश्वविद्यालयों से आजकल किसी को नौकरी की गारंटी भले न मिलती हो पर नेतागीरी जैसे फलते फूलते व्यवसाय में हाथ पैर मारने के लिए काफ़ी अनुभव मिल ही जाता है। पर नेतागीरी हमारे पिताजी ने की नहीं यद्यपि उन्हें बातें बनाने में महारत हासिल है, फिर भी...।

अब आप ये बताइए इस देश में बातें बनाने में किसे महारत हासिल नहीं है। राह चलते आपको ऐसे लोग मिल जाएँगे जो हर विषय के साथ-साथ बातें करने में भी विशेषज्ञ होंगे। राजनीति और समाजशास्त्र से लेकर स्टिंग थ्योरी तक में उनका दखल होगा। पाठकों को लग रहा होगा कि हम विषय से भटक जाते हैं। क्या करें विषय से भटकने की परंपरा का निर्वाह जो करना है। सारे देश का यही हाल है, नेतागण यदि विषय से भटके हुए हैं तो आम जनता भी उनसे पीछे कहाँ है। वैसे तो आम जनता को तो पता ही नहीं है कि विषय क्या है और जानकर भी क्या करना है।

मज़ेदार बात यह है कि भटक कर भी लोग अपनी परंपराओं को नहीं भूले हैं और किसी न किसी तरीके से कोई न कोई परंपरा वेताल की तरह अपने कंधे पर लादे लिए जा रहे हैं। कोई उनसे पूछे कि भाई विक्रमादित्य बनने में मज़ा आता है क्या, पर सवाल यह है कि पूछे कौन। सभी तो विक्रमादित्य बनने में व्यस्त हैं। लखनऊ के नवाब साहब एक भूलभुलैया बनवाकर एक अनोखी परंपरा क्या छोड़ गए, सारा का सारा देश ही भूलभुलैया बना हुआ है।

अब जब परंपरा पालन की बात चल ही निकली है तो लगे हाथों क्यों न गांधी परंपरा का भी ज़िक्र कर लें। यह तो पता नहीं कि गांधी परंपरा का निर्वाह कितने और कौन लोग कर रहे हैं पर गांधी जी के बंदरों के भक्त बहुत मिल जाएँगे ­ बुरा कहने वाले को कुछ न कहो और वैसे भी आजकल भला कोई कुछ कहता है, यदि कहीं कुछ बुरा हो रहा है तो आँख मूँद लो और यदि कोई किसी को बुरा (भला) कह रहा है तो अनसुनी कर दो।

तो यह था थोड़ा परिचय हमारे खानदान, विरासत व परंपराओं के बारे में और अब हम अपनी कहानी वहाँ से शुरू करते हैं जहाँ पर छोड़ी थी। हम बचपन से काफ़ी रचनात्मक थे और रचनात्मक अभिव्यक्ति में हमारा काफ़ी विश्वास था क्योंकि सिर्फ़ रचनात्मक होना ही काफ़ी नहीं होता। हमारी पहली रचना गूढ़ विचारों के रूप में तब सामने आई जब हमने उन्हें घर की सफ़ेद दीवारों पर काफ़ी दार्शनिक अंदाज़ में व्यक्त किया था। अलग व्यक्तित्व पर उनका प्रभाव कुछ अलग ढंग से पड़ा था। माँ हमारी रचनात्मकता से अभिभूत होकर भावविभोर हो गईं थीं, पिताजी ने मुसकुराकर कहा था चिंता मत करो, बड़ा होकर जब समझदार बनेगा तब यह हम जैसों की तरह ही इस समाज में घुलमिल कर उसी का एक हिस्सा हो जाएगा। हमारे दादाजी, उन्हें तो काफ़ी सदमा लगा था और तुरंत ही उन्होंने ज्योतिषी को बुलवा भेजा था।

ज्योतिषी के अनुसार हमारे जन्म के समय नक्षत्रों की स्थिति कुछ वैसी ही थी जैसी कि भक्त तुलसीदास के लिए, पर बच्चे की फितरत कबीरदास जैसी होगी, कुल मिलाकर परेशान होने जैसी कोई बात नहीं है। लेकिन हमारे दादाजी को चैन कहाँ, उन्होंने तो घर पर अखंड रामायण बिठवा दी ताकि हमारे ऊपर से बुरे ग्रहों का साया उठ जाय। अगले ही दिन उस सफ़ेद दीवार पर हमारी कलाकृति की जगह उन टोटकों ने ले ली थी जो हमारे भले के लिए डाले गए थे। कभी-कभी हम सोचते हैं कि गुफ़ाओं में बने वो पाषाणकालीन चित्र कहीं टोटके ही तो नहीं जिसे हमारे तथाकथित सभ्य समाज ने कला का नाम दे दिया है और उनके छायाचित्र अपने ड्राइंगरूम में लटकाकर ड्राइंगरूम को एथनिक टच देने में लगे रहते हैं।

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बात उस समय की है जब हमने क़रीब दो­ढाई सौ पन्ने जमा कर लिए थे अपनी कविताओं के, बस समस्या यही थी कि मूल्यांकन किससे करवाया जाय। एक दिन बातों बातों में हमने अपनी इस समस्या का ज़िक्र मित्र हनुमान से किया तो वह फट से फूट पड़ा, ''एक बात मानो गुरू., तुम पंडित जी के पास चले जाओ।''
''कौन वो मांटेसरी वाले,'' हमने पूछा।
''हाँ वही याद नहीं है पिछले साल रामलीला के टाइम खूब कविता बोले थे और खूब तालियाँ पाए थे, कविता वो लिखें और झेले सारा गाँव।''

हनुमान ने चुटकी ली और चलता बना पर हमें अवश्य सोच में डाल गया। वास्तव में क्या तालियाँ बजाई थी श्रोताओं ने उनके काव्यपाठ के दौरान। उनकी हर कविता के बाद पूरा पंडाल तालियों की गड़गड़ाहट गूँज जाता इस आशा से कि ये अंतिम होगी पर पंडित जी तालियों की गर्जना से प्रेरित हो सावन भादों की झड़ी की तरह एक नई कविता शुरू कर देते। हद तो तब हो गई जब उनकी एक कविता के दौरान श्रोता सारे समय ताली ही बजाते रहे, यह धुन निकालते रहे 'और नहीं अब और नहीं' और उस कविता को अंतिम बनाकर ही छोड़ा। पंडित जी को भी लगा कि तालियों की निरंतर गड़गड़ाहट ही उनकी कविताओं को सच्ची श्रद्धांजलि है, तभी जाकर वो रुके।

ख़ैर अब कोई और चारा भी हमारे पास न था। पंडित जी के पास तो जाना ही था। काफ़ी हिम्मत जुटाई, जुटानी क्या थी हनुमान ने दिलाई। पन्ने सँभाले और एक दोपहर पहुँच गए पंडितजी के घर। सबसे पहले पंडितजी के पालतू कुत्ते ने सूँघकर, दुम हिलाकर और फिर अपने दो पैर हमारे ऊपर टिकाते हुए, हमारा मुँह चाटकर स्वागत किया ओर हमें बैठक की ओर ले गया। पंडितजी ध्यानमग्न होकर अपनी उँगलियों से नाक के बालों से खेल रहे थे।

कुत्ते की कूं-कूं से उनकी तंद्रा टूटी तो बोले ''अरे बेटा तुम! कहो कैसे आए? घर पर सब लोग मज़े में हैं?'' ऐसा लगा कि उन्हें उत्तर में कोई रुचि नहीं है। प्रश्न पूछना था सो पूछ लिया। यह तो कुछ वैसा ही व्यवहार था जैसा कि विपक्ष का संसद में होता है। ''जी... वो ज़रा... आपको कुछ दिखाने लाया था। कुछ कविताएँ लिखी हैं, हमने सोचा आपको दिखा लें।''
''दिखाओ'', अचानक गंभीर हो गई उनकी मुखमुद्रा से गंभीर स्वर निकला। एक पल को तो हमें लगा कि कहीं कविताओं को लेकर हमने उनके कॉपीराइट को तो चुनौती नहीं दे दी। ख़ैर हमने पन्ने उनके सामने सरका दिए। उन्होंने अपनी ऐनक नाक पर चढ़ाई और काफ़ी देर तक अपनी थूक लगी उँगलियों से पन्ने पलट-पलट कर ध्यानमग्न होकर पढ़ने के बाद उन्होंने एक लंबी जम्हाई ली और उसी दौरान बोलते हुए कहा ''बाकी सब तो ठीक है पर तुम्हारी कविताओं में जीवंतता नहीं है।''
''जी...,'' हम बस इतना ही कह पाए थे कि पंडितजी बीच में ही टोकते हुए कहने लगे, ''अरे भाई कहाँ तुम नगरपालिका और समाज के चक्करों में उलझे हुए हो। अभी तुम लड़के हो कुछ रूमानियत पैदा करो अपनी कविता में। इतनी गंभीरता उस उम्र में अच्छी नहीं।''

इस बार हमने प्रश्नवाचक मुद्रा बनाई और बोलना चाहा पर पंडित जी तो अपने आप ही में खोए हुए थे, भला हमारी तरफ़ क्यों देखते। उन्होंने बोलना जारी रखा, ''शृंगार रस के बारे में पढ़ा है?'' उनके प्रश्न में प्रश्न कम शायद आश्चर्य अधिक था। पंडित जी का बोलना फिर शुरू हो चुका था, ''यही तो समस्या है आजकल के छात्रों और शिक्षा की, कि जो सीखते हैं उसका उपयोग नहीं करते और जिसका उपयोग करते हैं पता नहीं कहाँ से सीखकर आते हैं। हम लोग तो अपने विद्यालयों में ऐसी शिक्षा देते नहीं।''

कुछ सीखने की बात जब आई है तो हम आपको यह बात बता दें कि हमारे अध्यापक भी हैरान हो जाते थे हमारी परीक्षा पुस्तिकाओं को देखकर कि लड़कों ने जो कुछ भी लिखा है आख़िर सीखा कहाँ से। उनकी समस्या का भी निदान हो ही जाता, यदि हर परीक्षा पुस्तिका में विद्यालय के नाम के साथ-साथ सीखने की जगह के बारे में भी लिखा जाता। कुछ भोंदू किस्म के लड़कों को छोड़कर बाकी के सारे उस जगह में 'कन्या पाठशाला' ही लिखते।

हमारे गाँव में तीन स्कूल थे। पहला 'प्राथमिक विद्यालय' जो कि मुख्यत: लड़कों के लिए था, दूसरा ‘कन्या पाठशाला’ जो सिर्फ़ लड़कियों के लिए था और तीसरा ‘मांटेसरी स्कूल’ जो कि पास के शहर के हर मोहल्ले में कुकुरमुत्तों की तरह उगने के बाद हमारे गाँव में भी उगा आया था। मांटेसरी स्कूल में लड़कों और लड़कियों में किसी तरह का भेद नहीं था।

पहले दो विद्यालय चूंकि सरकारी थे इसलिए अब बंद हो चुके हैं यद्यपि आज भी हर साल छात्र­पंजिका में लड़कों के नाम दर्ज होते हैं पर वो खुशकिस्मत छात्र विद्यालय आने की बजाय अध्यापकों के खेतों में काम करके देश की उत्पादकता बढ़ाते हैं। रही बात कन्या पाठशाला की, तो अभिभावकों ने अपनी लड़कियों को पाठशाला भेजना ही बंद कर दिया। उनका तर्क था कि विद्यालय आकर अध्यापिकाओं के स्वेटर बुनने से अच्छा है कि घर पर रहकर घरवालों के ही स्वेटर बुने जाएँ।

तो इस तरह से दोनों सरकारी विद्यालय बंद हो गए। अब सारे गाँव को साक्षर बनाने की ज़िम्मेदारी पूरी तरह से मांटेसरी स्कूल पर ही आ चुकी है। पंडित जी भी प्राथमिक विद्यालय की उपस्थिति पंजिका में उपस्थिति लगा कर मांटेसरी स्कूल में बच्चों को हिंदी पढ़ाते हैं। पता नहीं वो सीखने सिखाने की बात अपने पर भी लागू कर रहे थे या नहीं वैसे भी हम सोच में पड़ चुके थे 'आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास...' वाला हाल हो चुका था। आए थे अपनी कविताओं का मूल्यांकन करवाने और अब शिक्षा पद्धति पर विचार सुनने को मिल रहे थे, हाय री विडंबना।

हमारा मन तो हुआ कि कह दें कि आप लोग तो विद्यालय में कैसी भी शिक्षा नहीं देते, पर चुप रहें और पंडितजी को सुनते रहे। नाक पर नीचे सरकते चश्मे को अपनी तर्जनी से ऊपर सरकाते हुए वो कहने लगे ''शिक्षा से अनुशासन तो अब ग़ायब ही है। भौतिक अनुशासन से लेकर वैचारिक अनुशासन, सब कुछ ग़ायब है, सब कुछ... शिक्षा से ही क्यों अब तो...।''

न जाने क्या सोच कर पंडित जी चुप हो गए, वैसे भी पता नहीं पंडित जी किस वैचारिक अनुशासन की बात कर रहे थे। हमारे विचार तो हमारे सामने कटी पतंग की तरह तैरते नज़र आ रहे थे, पता नहीं पंडित जी को भी दिख रहे थे या नहीं। अचानक अंदर से ढिशुम­ढिशुम की आवाज़ आई। हमने दरवाज़े की तरफ़ देखा और पंडित जी ने अपने कुत्ते की तरफ़, जो कि पहले से ही दरवाज़े की तरफ़ देख रहा था, देखते हुए कहा, ''लल्लन टेलीविजन धीरे करो।''

हमें काफ़ी इत्मीनान हुआ यह जानकर कि यह टीवी था। वैसे भी जब से टीवी घरों में आया है, यथार्थ और कल्पनाओं में अंतर काफ़ी कम हुआ है। बच्चे तो सुपरमैन बन कल्पना की उड़ान भर कर जब यथार्थ की कठोर ज़मीन पर क्रैश लैंडिग करते हैं, माँ­बाप को सीधे अस्पताल ही भागना पड़ता है। गाँव का बनिया जब से एक डिश ख़रीदकर लाया है लगभग हर घर में केबल कनेक्शन पहुँच गया है। पाठकगण सोच में पड़ गए होंगे कि हम किसी बाइसवीं सदी के गाँव की बात कर रहे हैं क्योंकि हमारे देश के गाँवों में बिजली का तो भरोसेमंद कनेक्शन है नहीं और हम केबल कनेक्शन की बात कर रहे हैं।

हमारा गाँव इस मामले में थोड़ा प्रगतिवादी है, हालाँकि प्रगतिवादी होना मजबूरी है फिर भी है। बात यह है कि हमारा गाँव शहर के काफ़ी पास है। शहर साल दर साल फैल रहे हैं, इस बात से हमारा गाँव भी अछूता नहीं रहा और अब सांस्कृतिक क्राइसिस के मुहाने पर आ पहुँचा है। ख़ैर, देर सबेर यह तो होना ही था। अचानक हमारी तंद्रा पंडित जी के बड़बड़ाने से टूटी। ''सारे दिन टेलीविजन पर नंगनाच आता रहता है, बच्चे लोग हैं कि मानते ही नहीं हैं और ऊपर से ससुर ये रामपाल बनिया केबिल दिखा दिखा के सब सत्यानाश किए दे रहा है।'' बड़बड़ाना उनकी बेबसी थी। शायद वो अपने घर में ही किसी तरह के अनुशासन का ही पालन नहीं करवा पा रहे थे। घर क्यों उनके खुद के लिए भी यह कार्य काफ़ी दुष्कर था।

हम सभी की यही व्यथा है। जैसे हर बुराई पड़ोसी के घर से शुरू होती उसी प्रकार समाजसेवा भी। आपको राह चलते कितने ही ऐसे समाज सेवी मिल जाएँगे जिनके खुद के घर वाले उचक्कई करते घूम रहे होंगे। उदाहरण के लिए हमारे नेतागण जो अपना घर छोड़कर देश का नेतृत्व करने निकले हैं, भाई घर तो नातेदार सँभाल ही लेंगे पर देश को कौन सँभालेगा। सही कहा आपने, महानुभाव! वैसे भी सारी धरती तो हमारा घर है ही, 'वसुधैव कुटुंबकम'।

''हाँ तो बात शृंगार रस पर अटकी थी,'' पंडित जी गला खखारकर प्रसंग में वापस आते हुए बोले, ''देखो मैं तुम्हे एक उदाहरण देता हूँ,'' पर उदाहरण देने से पहले उन्होंने लल्लन को चाय के लिए आवाज़ लगाई। फिर उन्होंने चार पंक्तियाँ सुनाई, जिन्हें हम यहाँ लिख कर उन्हें अमरत्व नहीं प्रदान करना चाहते। ''यह है कविता हमने लिखी थी जब हम रहे होंगे कोई तुम्हारी उम्र के, जब हमारी शादी लल्लन की अम्मा से हुई थी और आज का दिन है, हमारे अंदर आज भी उतनी ही रूमानियत विद्यमान है।'' इसके साथ ही पंडित जी, पान चबा-चबा कर भूरे पड़ चुके अपने दाँतों को निपोर कर, हँस दिए। ख़ैर, कविता और चाय दोनों की ही मधुरता, बमुश्किल हमारे गले के नीचे उतरे। जब हमने उनसे चलने की आज्ञा माँगी, तो उनकी मुखमुद्रा देखकर ऐसा लगा कि हमने कोई अवज्ञा कर डाली है, एक बार फिर वो अपनी हिदायत दोहराना नहीं भूले, ''देखो लिखते तो ठीक हो पर थोड़ी-सी रूमानियत लाकर प्रयास करो।'' ख़ैर यह और बात है कि हमने पंडित जी की बात कभी नहीं मानी।

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तो यह था हमारे साहित्यिक व्यक्तित्व का समाज से प्रथम परिचय। अब चूंकि प्रथम था इसलिए काफ़ी झटकेदार अनुभव भी, आज तक याद है। बाकी के सारे तो कलम की स्याही बन काग़ज़ के पन्नों पर उतरे और समय के साथ फीके पड़ कर कहीं गुम हो गए। आज साहित्य के जिस पड़ाव पर हम आकर रुके हुए हैं, इसका सफ़र न जाने कितने टेढ़े-मेढ़े रास्तों से होकर पूरा किया है। काफ़ी टेढ़ी-मेढ़ी बातें हैं, यदि चिंतन करने और लिखने बैठ गया तो हमारे साथ-साथ पाठकों को भी दर्शनशास्त्र में पीएच.डी. की उपाधि मिल जाएगी। वैसे भी न जाने अभी कितना सफ़र और बाकी है। मौका मिला तो बाकी के सफ़र की कहानी फिर कभी पर इस बेताल कथा को भूलिएगा

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