मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ ।
थपकियों से आज झंझा
के भले ही दीप मेरा
बुझ रहा है, और पथ में,
जा रहा छाये अँधेरा ।
पर न है परवाह कुछ भी,
और कुछ भी ग़म नहीं है
ज्योति दीपक को, तिमिर को,
पथ की पहचान दी है ।
मैं लुटा सर्वस्व-संचित
पूर्ण भी हूँ, रिक्त भी हूँ
मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ ।।
अग्नि-कण को फूँक कर,
ज्वाला बुझाई जा रही है
अश्रु दे दॄग में, जलन,
उर की मिटाई जा रही है ।
इस सुलभ वरदान को मैं,
क्यों नहीं अभिशाप समझूँ ?
मैं न क्यों इस सजल घन से,
है बरसता ताप समझूँ ?
मैं मरूँ क्या, मैं जिऊँ क्या,
शुष्क भी हूँ, सिक्त भी हूँ
मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ ।।
मैं तुम्हारे प्राण के यदि,
अंक में तो क्या हुआ रे ?
है मनोरम कमल बसता
पंक में तो क्या हुआ रे ?
मैं तुम्हारे जाल में पड़
बद्ध भी हूँ, मुक्त भी हूँ
मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ ।।
- श्यामनन्दन किशोर
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