Monday, August 27, 2007

परिचय


नाम : डॉ. हृदय नारायण उपाध्याय
जन्म: ०१ जुलाई १९६२ को चन्दौली जिले के एक गाँव फुलवरिया में।
शिक्षा: काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हिंदी में स्नातकोत्तर परीक्षा में सर्वोच्च अंक प्राप्त करने के बाद ”हिंदी की प्रगतिशील आलोचना में ”द्वंद्व” विषय पर शोध प्रबंध प्रस्तुत किया।
रचना कर्म : कविता, समीक्षा, निबंध, एकांकी का।
प्रकाशन : ‘व्याकरण कौमुदी‘ कक्षा एक से लेकर आठ तक की कक्षा के लिए व्याकरण की पुस्तक। प्राईमरी शिक्षक, शिराजा, कहानीकार, साहित्य दर्पण, साहित्य मंजरी, संगम, व्यंजना प्रज्ञा, विविध भारत, सृजन और अभिव्यक्ति आदि पत्रिकाओं में निबंध समीक्षा एवं कविताएँ प्रकाशित। इसके अतिरिक्त नवभारत, दैनिक भास्कर, स्वतंत्र मत, जे वी जी टाइम्स आदि समाचार पत्रों में आलेख समीक्षाएं एवं कविताएँ प्रकाशित।
प्रसारण : आकाशवाणी अम्बिकापुर, रीवा एवं जबलपुर से कविताओं और चिंतन का प्रसारण।
सम्प्रति :

स्नातकोत्तर शिक्षक (हिन्दी), केन्द्रीय आयुध निर्माण, भुसवाल, ज़िला जलगाँव, महाराष्ट्र।
सम्पर्क : upadhyayhn@yahoo.कॉम




महादेवी वर्मा :- दिव्य अनुभूतियों की निर्धूम दीपशिखा
डॉ. हृदय नारायण उपाध्याय

आधुनिक हिन्दी काव्य साहित्य में महीयसी महादेवी वर्मा का व्यक्तित्व विराट एवं उनका कृतित्व बहुआयामी है। चिन्तन एवं सृजन की सुचिता महादेवी के साहित्य का मूलाधार है। अगर उनके काव्य साहित्य में भावनाओं की गहराई एवं दार्शनिकता है, तो उनके गद्य साहित्य में मानव मात्र ही नहीं वरन्‌ मानवेतर जगत कल्याण की भी चिन्ता दिखाई पड़ती है। यानि ’हितेन सह साहितम्‌ तस्य भावः साहित्यम्‌’ के आदर्श मानक पर महादेवी का साहित्य पूरी तरह से खरा उतरता है। महादेवी का उद्देश्य स्वान्तः सुखाय न होकर सर्वजन हिताय एवं सर्वजन सुखाय है। साहित्य सृजन द्वारा समाज सेवा एवं उदात्त मानवीय मूल्यों का प्रसार महादेवी का उद्देश्य रहा है।
नारी शिक्षा के प्रसार की ललक महादेवी में प्रारम्भ से ही थी। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से वैदिक साहित्य पर वे उच्च अध्ययन करना चाहती थीं, लेकिन महिला होने के कारण उन्हें वेदाध्ययन की अनुमति नहीं मिली। यह मलाल ने महादेवी वर्मा को हतोत्साहित नहीं किया वरन्‌ नारी शिक्षा के प्रसार के संकल्प के रूप में उनके भीतर पनपा। जिसकी परिणति ’प्रयाग महिला विद्यापीठ’ की स्थापना के रूप में सामने आयी। इस शिक्षण संस्था का योगदान नारी शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय रहा है। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की पौत्रियों ने भी इसी विद्यापीठ से उच्च शिक्षा ग्रहण की। महादेवी के मन में उच्चशिक्षा की गुणवत्ता को लेकर उँचे आदर्श थे। उनकी सोच थी कि उच्च शिक्षा प्राप्त विद्यार्थी का मन और मस्तिष्क पूर्णतः विकसित हो। उनमें उदात्त मानवीय मूल्यों का समावेश हो। मानव समुदाय में वह अपनी अलग पहचान बना सके। महादेवी ने इस सन्दर्भ में लिखा भी है –

“संसार के मानव-समुदाय में वही व्यक्ति स्थान और सम्मान पा सकता है, वही जीवित कहा जा सकता है जिसके हृदय और मस्तिष्क ने समुचित विकास पाया हो और जो अपने व्यक्तित्व द्वारा मनुष्य समाज से रागात्मक के अतिरिक्त बौद्धिक सम्बन्ध भी स्थापित कर सकने में समर्थ हो।”—

उच्चशिक्षा प्राप्त हर विद्यार्थी से महादेवी वर्मा ऐसी ही योग्यताओं की अपेक्षा करती थीं। प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्राचार्या के रूप में महादेवी ने ऐसी ही शिक्षा प्रदान कराने का प्रयास किया है। आज़ादी के बाद शिक्षा क्षेत्र में फैले भ्रष्टाचार एवं आयी गिरावट से वे काफी आहत महसूस करती थीं। उनके मन की यह पीड़ा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के नवें दशक के एक दीक्षान्त समारोह में उस समय सामने आयी, जब वे मुख्य अतिथि का सम्बोधन दे रही थीं। महादेवी ने इस पीड़ा को इन शब्दों में व्यक्त किया था – “आज कालेज एवं विश्वविद्यालयों में विद्यार्थी अग्नि के स्फुलिंग के रूप में प्रवेश करते हैं लेकिन उच्च डिग्री प्राप्त करते-करते वे राख बनकर निकलते हैं।” निश्चय ही महादेवी की यह पीड़ा उच्च शिक्षण संस्थाओं की कार्यप्रणाली पर एक तल्ख़ टिप्पणी थी, जिसमें पूरी शिक्षाव्यवस्था के ताने-बाने को नये सिरे से सुधारने की जरूरत महादेवी ने महसूस की थी।

आज स्त्री-विमर्श की चर्चा हर ओर सुनाई पड़ रही है। महादेवी ने इसके लिए पृष्ठभूमि बहुत पहले तैयार कर दी थी। सन्‌ १९४२ में प्रकाशित उनकी कृति ’श्रृंखला की कड़ियाँ’ सही अर्थों में स्त्री-विमर्श की प्रस्तावना है जिसमें तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों में नारी की दशा, दिशा एवं संघर्षों पर महादेवी ने अपनी लेखनी चलायी है।

महादेवी वर्मा ने कई मर्मस्पर्शी संस्मरणों एवं रेखाचित्रों की भी रचना की है। महादेवी के संस्मरण हिन्दी साहित्य जगत में अपनी अलग पहचान रखते हैं। संस्मरण के केन्द्र में मानव हो अथवा मानवेतर जगत से सम्बद्ध कोई प्राणी, उसके चित्रण में महादेवी की करुणा स्वतः फूट पड़ी है। रेखाचित्र एवं संस्मरणों की रचना में महादेवी का कौशल साहित्य-जगत में एक सफल गद्यकार के रूप में उनकी छवि निर्मित करता है। उनकी कृतियाँ स्मृति की रेखाएँ, अतीत के चलचित्र, पद्य के साथी, श्रृंखला की कड़ियाँ और मेरा परिवार को पढ़कर यह अन्तर करना मुश्किल हो जाता है कि महादेवी को कवयित्री कहा जाय अथवा कुशल गद्यकार। निसर्गतः कवयित्री होने के कारण महादेवी के गद्य में भावनाओं की गहराई एवं भाषा में लालित्य विद्यमान है। संस्कृत की अध्येता होने के कारण उनकी भाषा प्रांजल एवं संस्कृतनिष्ठ है। लेकिन संस्कृतनिष्ठ भाषा होने पर भी उसमें प्रवाह है। क्योंकि महादेवी ने आवश्यकतानुसार देशज शब्दों एवं लोक मुहावरों का भी प्रयोग किया है जिस कारण भाषा में कहीं ठहराव नहीं दिखाई पड़ता। उनके संस्मरणों को पढ़ने से यह लगता है कि उनकी लेखनी मानो वह पारस है जिसके स्पर्श से हर वस्तु कंचन बन जाती है। गिल्लू, सोना, नीलू, निक्की रोजी और रानी ये सामान्य प्राणी न होकर हमारे आपके बीच के सम्बन्धी बन जाते हैं आत्मीय बन जाते हैं। इनका रहना हमें आह्लादक बनाता है तो इनका असमय जाना हमें दुखी भी करता है। मानवेतर प्राणीयों पर लिखे उनके संस्मरणों और रेखाचित्रों को पढ़्ते समय महादेवी की सूक्ष्म निरीक्षण एवं मर्मभेदी दृष्टि का ज्ञान होता है, जहाँ वे पशु मनोविज्ञान का भी विश्लेषण करती हैं। इस प्रकार वे साधारण चरित्रों में भी असाधारणता का संधान कर लेती हैं। महादेवी के इन संस्मरणों ने हिन्दी साहित्य पर ऐसा प्रभाव डाला कि संस्मरणों और रेखाचित्रों के लिए महादेवी ने नये क्षितिज का उद्‌घाटन किया।

’छायावाद’ आधुनिक हिन्दी काव्य का स्वर्णयुग है। इसके चार स्तम्भों में से महादेवी एक हैं। इनकी कविताओं में एक ओर यदि भावनओं की गहराई है तो दूसरी ओर आध्यात्मिक चिन्तन की उँचाई भी है। कवितओं का मूल-स्वर मन की वेदना एवं पीड़ा है जिसका निवेदन महादेवी ने रहस्यवादी तरीके से किया है – “मैं नीरभरी दुख की बदरी।” महादेवी का सम्बोधन-पुरुष लगता है लोक से परे कोई अलौकिक सत्ता है। अपनी प्रेमानुभूतियों की अभिव्यक्ति महादेवी ने बड़े ही शिष्ट और शालीन तरीके से किया है। शायद छायावादियों में अकेली कवयित्री होने के कारण उन्होंने अपनी प्रेम और सौन्दर्य की कविताएँ मर्यादा के आवरण में ढँक कर लिखी हैं। उनका अज्ञात प्रियतम रहस्य के आवरण में आता है –“रजत रश्मियों की छाया में धूमिल घन-सा वह आता” अथवा “करुणामय को भाता है तम के परदे में आना” आदि। महादेवी अपने प्रिय के आगमन की कामना करते हुए कहती हैं –

“यदि तुम आ जाते इक बार, सुख की कलियाँ दुख के काँटे पथ में बिछ जाते बन पराग”
महादेवी वर्मा की कवितओं में मन की गहनतम अनुभूतियों की अभिव्यक्ति मर्मस्पर्श रूप में हुई है। प्रेम और श्रृंगार के भाव को मर्यादित तरीके से व्यक्त किया गया है। महादेवी ने शुचिता का ध्यान हमेशा रखा है। भाव, भाषा, प्रतीक एवं आलंकरिकता हर दृष्टि से महादेवी की कविताएँ उत्कृष्ट हैं। गीतों में तो लगता है महादेवी के मन की पीड़ा स्वतः बह पड़ी है। मानो यह पीड़ा एक ऐसी दीपशिखा है जो उनके मन में निर्धूम जला करती है और जिसकी खुशबू का अहसास हर पाठक करता है, क्योंकि यह पीड़ा केवल महादेवी की न होकर हम आप सबकी हो जाती है।

सन्दर्भ – १ – आरोह –भाग २ पृष्ठ-६९
परिचय


नाम : मुरली मनोहर श्रीवास्तव
जन्म तिथि : 18 मई 1964
पिता का नाम : श्री विजय कुमार श्रीवास्तव
जन्म स्थान : इलाहाबाद - उ.प्र.
शिक्षा : बी ई (मैकेनिकल इन्जीनयरिंग)
कार्यरत :

एन टी पी सी लिमिटेड – अभियंता के पद पर
प्रकाशन : १००० से अधिक रचनायें राष्ट्रीय सहारा, नवभारत टाईम्स, पंजाब केसरी, अमर उजाला सहित विभिन्न राष्ट्रीय पत्रो में प्रकाशित।
कविता संग्रह– सत्य जीतता है – हिन्दी अकादमी दिल्ली से 1999 में प्रकाशित।
इ-मेल : murlimanohars@yahoo.com, murlimanohars@gmail.com
ब्लॉग :
hhttp://murlimanoharkeekavita.blogspot.कॉम


सेंसेक्स और चुनाव
मुरली मनोहर श्रीवास्तव

आजकल चुनाव कब होते है और कब रिजल्ट आता है पता ही नहीं चलता। कौन जीता कौन हारा यह बात तो छोड़ ही दीजिये। इस समय सेंसेक्स इम्पार्टेंट है। हर ऐरा गैरा नत्थू खैरा मुँह उठाये शेयर ब्रोकर बना बैठा है, इतना ही नहीं ठेले वाले भी ब्लू चिप शेयरों के म्युचुअल फंड में इंवेस्ट कर रहे हैं कल हमारे मुहल्ले का रिक्शे वाला टी सी एस और रिलायंस का रेट पूछ रहा था। मैं चौका तो वह बोला, साहब मिड कैप के दस शेयर लिये थे पिछले महीने की बचत से, सोच रहा हूँ इनफोसिस और टेल्काम कुछ नीचे गिरे तो दो चार शेयर डाल लूँ। वैसे सीमेंट और टेक्नालाजी के शेयरों के बारे में आपकी क्या राय है?

मुझे लगा मैं चक्कर खा कर गिर पड़ूँगा, इतना ज्ञान तो मुझे भी नहीं है शेयर मार्केट का, दूसरे मैं खुद रिक्शे पर आइडिया लेने बैठा था पर यह तो मुझसे अपना ही समान्य ज्ञान बढ़ा रहा है। वैसे भी आजकल हालात इतने बुरे हैं कि चाय पान की दुकान पर या मजदूरों की बस्ती में समय गुजार कर किसी नये विचार का संचार नहीं होता, इस देश में गरीबी और भ्रष्टाचार का इतना अधिक दोहन हो चुका है कि इस विषय में कुछ कहते ही पब्लिक हँसने लगती है, उसे लगता है यह राइटर नया है और अपने लिये जगह तालाश रहा है। भला इसमें नया क्या है रात दिन तो टी वी वाले गरीबी ग्लैमर और भ्रष्टाचार का लाइव टेलीकास्ट कर रहे है अभी तक तक तो इसकी सेहत पर कोई फर्क पड़ा नहीं।

मैं अपने मसाले के चक्कर में था। मैंने बात का रुख शेयर और सेंसेक्स से मोड़ कर चुनाव की ओर किया।

इस बार कौन लड़ रहा है तुम्हारे क्षेत्र से, मैंने पब्लिक का प्रिय विषय टच करने की कोशिश की।

क्या हमारे क्षेत्र में चुनाव हो रहे हैं हमें पता ही नहीं। अच्छा हुआ आपने बता दिया वर्ना हमें तो पता ही नहीं चलता। अजीब हालत है जब इसे चुनाव का पता नहीं तो वोट क्या डालेगा।

क्या बात करते हो अरे पूरी की पूरी राष्ट्रीय टीम लगी है एक दल की और दूसरे सभी दल एक उम्मीदवार के खिलाफ दूसरे नम्बर की लड़ाई लड़ रहे है।

अच्छा, वह आश्चर्य प्रकट करता हुआ बोला।

मुझे खीझ पैदा होने लगी,

क्यों कोई आया नहीं क्या वोट माँगने?”

बाबूजी अब आपसे क्या छुपाना कोई हारे कोई जीते और किसी की सरकार बने क्या फर्क पड़ता है। अब तो मैंने भी बड़े लोगों की तरह वोट डालना और पालिटिक्स में इंटरेस्ट लेना छोड़ दिया है। वो सेल के शेयर का क्या रेट चल रहा है आजकल और पब्लिक सेक्टर में इंवेस्ट्मेट कैसा रहेगा?

वह फिर काम की बात पर लौटता हुआ बोला।

मैंने कहा, तुम रिक्शा चलाना छोड़ कर शेयर ब्रोकर क्यो नहीं बन जाते।

बाबूजी आप तो मजाक करते हैं मुझे कम्पुटर देखना और माउस पकड़ना कहाँ आता है, हाँ, हमने अपने बेटे को शेयर ब्रोकर के सब ब्रोकर के यहाँ फिट करा दिया है। आजकल वही उसके चेक इकट्ठा करता है और कमीशन से नई बाइक पर चलता है वह भी इंट्रेस्ट फ्री लोन पर खरीदी है उसने, कह रहा था मैं भी इसे चला कर धोनी बनूगा। वही उसका आईडल है। उसी के कहने पर तो मैंने डी मैट खोला है।

देश में प्रगति का रेट देख कर मैं परेशान हो उठा मैं चाहता हूँ कि चुनाव और पालिटिक्स पर बहस हो और वह है कि मार्केट से नीचे ही नहीं उतर रहा है। मुझे लगा मैं अपना एटीच्यूड़ बदल दूँ।

मैंने पूछा, किस बैंक का क्रेडिट कार्ड दिलाया है बेटे ने?

उसकी बाँछे खिल गयीं, अरे साहब मान गये प्रायिवेट बैंकिंग वालों को मैंने अँगूठा एक कार्ड के लिये लगाया था पर उन्होंने दो भेजा है एक मेरा एक राम प्यारी (मेरी घराणी) का।

क्या क्या खरीदा उससे, मैंने जोड़ा।

हें हें अब आपसे क्या छुपाना कल गया था शापिंग माल में, धोती कुर्ता और गमछा मिला ही नहीं क्या करता, आप माल वालों को समझाइये कि जिस वर्ग को क्रेडिट कार्ड बंट रहा है वह जींस टी शर्ट नहीं कुर्ता खरीदता है वह भी मोटे कपड़े का सो अगर वे अपना बिजनेस बढ़ाना चाहते हैं तो बंडी और गमछा बेचें।

मुझे उसकी बात सुन कर लगा वाकई देश में चल रही प्रगति की नयी बयार में चुनाव बेमानी हो गया है और सेंसेक्स महत्वपूर्ण।

Sunday, August 26, 2007

परिचय



नाम : शबनम शर्मा
जन्म : जनवरी 20,1956, जन्म स्थान: नाहन
शिक्षा : बी.ए., बी.एड.
सम्प्रति : अध्यापन
उद्देश्य : सरल भाषा में अपनी आवाज़ जन-जन तक पहुँचाना व नए लेखकों प्रोत्साहन देना। समाज को काव्य व लेखन कला से अवगत करवाना व अपने में छुपी समस्त कला व अनुभूतियों को जनसम्पर्क तक पहुँचाना।
प्रकाशन : अनमोल रत्न (काव्य संग्रह), काव्य कुँज (काव्य संग्रह)
करीब 1300 ग़ज़लें, कवितायें, 10 कहानियाँ, 10-12 लघुकथायें और 20 के करीब ज्वलंत मुद्दों पर लेख।
प्रकाशित: समाचार पत्रों में - दैनिक ट्रिब्यून, दिव्य हिमाचल, अजीत समाचार, भास्कर, राँची एक्सप्रैस, गिरीराज, श्रोता समाचार, हिमवंती, हिम सूर्य, हिम सत्ता, इण्डिया गैप्स टुडे और सामाजिक आक्रोश
पुस्तकें: आइना-ए-ग़ज़ल (बम्बई), सर्जक (वियोग), झरोखा-2000 (हैदराबाद), संकल्पना (प्रतापगढ़), सहर (प्रतापगढ़), प्रवाह (रामपुर), काव्य रश्मि (नाहन), अभियान (बम्बई), गंगोत्री (बालाघाट), शताब्दी रत्न निदेशिक (पानीपत), समर्थन (नाहन), अमृत कलश (खंडवा) और हे मातृभूमि (नैमिश्रणाय)
पत्रिकायें: हतिगन्धा (पंचकूला), जगमगदीप (अलवर), फ्रिकरोफन (शिमला), विपाशा (शिमला), समाज प्रवाह (बम्बई), रैन-बसेरा (अहमदाबाद), प्रगति पथ (बुलन्द शहर), शुभ तारिका (अम्बाला), राजकला (लखनऊ), हिम ज्योति (शिमला), डैफोडिल्ज़ (नाहन), चौगान(नाहन), सुरभि (नाहन), सौहार्द (इलाहाबाद), प्रत्याक्षी, नालन्दा दर्पण (नालन्दा), पत्रकार सुमन (प्रतापगढ़), वाभंगी (मथुरा), गंगोत्री (बालाघाट), समर्थन, मरु-गुलशन (जोधपुर), त्रिवेणी साहित्य (गाज़ियाबाद), रेणुका स्मारिका (रेणुका), अखिल भारतीय होम्योपैथिक पत्रिका (खुरजा), सरोपशा (दसूहा), नारी अस्मिता (बढ़ोदरा), सतयुग की वापसी (अलवर), भैरवसुख सागर (अहमदाबाद), शब्द (लखनऊ), सौगात (बारां), शिवम (भोपाल), सुरभि समग्र (लखनऊ), दस्तक (बहादुरगढ़) और संदर्भ (रांची), में ग़ज़लें कवितायें, लेख व कहानियों का प्रकाशन। करीब 600 कविताएँ, कुछ कहानियाँ, लघु कथाएँ उपर्युक्त पत्रिकाओं, अखबारों में प्रकाशित।
विशेष: स्वरचित भजनों की कैसेट बाज़ार में।
सफलता एवं सम्मान : शताब्दी रत्न (पानीपत), सुरभि साहित्य (बम्बई), आर्चाया (पानीपत), ग़ज़ल श्री (कप्तानगंज), महादेवी वर्मा सम्मान ( मथुरा), कवयित्री सम्मान (दिल्ली), काव्य महारथी (इलाहाबाद), कवयित्री सम्मान (स्टेपको, नाहन), कवयित्री सम्मान (कृपालशिला गुरुद्वारा, पाँवटा साहिब), ग़ज़ल रत्न (बम्बई), महिला रत्न (खंडवा), ’स्व. मुकीम पटेल सम्मान’ (बालाघाट, म.प्र.), ’साहित्य रत्न’ (राम साहित्य मंडल, नाहन), ’कवयित्री सम्मान’ (प्रतापगढ़), ’कवयित्री सम्मान’ (लायन्स कल्ब, नाहन), ’काव्य प्रज्ञ’(रामपुर यू.पी.), साहित्य कुम्भ "रत्न श्री", हिम आभा (रेणुका), रत्न श्री (बम्बई), उत्कृष्ट साहित्यिक सेवा हेतू कहानी महाविद्यालय अम्बाला से सम्मानित।
कवि सम्मेलन करीब 100 कवि सम्मेलनों में भागीदारी। स्थानीय, राज्य स्तरीय, राष्ट्र स्तरीय।
रुचि : ग़ज़लें लिखना व सुनना।

छुट्टियाँ
शबनम शर्मा

गरमी की छुट्टियाँ शुरू हो गईं थीं। बच्चे पूरा वर्ष इन छुट्टियों के सपने संजोए रहते हैं। संजीव को भी नानी के पास जाना था। संजीव को मामा ननिहाल ने आए। २-३ दिन वो चुप-चुप सा रहा। परन्तु धीरे-धीरे वो घर में व आस-पड़ोस के बच्चों के साथ घुल-मिल गया था। उसने विपुल को अपना दोस्त बना लिया था। विपुल संजीव को शाम ढले ही अपने खेतों की तरफ ले जाता। उसे ट्यूबवैल के पानी से नहलाता। दोनों दूर-दूर तक दौड़ते, खेलते, कभी खेतों से मक्की तोड़ते, तो कभी खीरे। झबुआ जो खेतों में ही रहता था, उन्हें मक्की भून कर खिलाता। लस्सी का गिलास देना तो कभी न भूलता। घर आकर भी रात ८-९ बजे तक संजीव गली में अपने दोस्त के साथ घूमता। घर में नानी उसे रात को कहानी सुनाकर सुलाना कभी न भूलती। पूरा दिन घर में रौनक सी रहती। मामा के बच्चों की भी छुट्टियाँ थी। मामी तरह-तरह के व्यंजन बनाकर बच्चों को खिलाती। दिन बीतते गये। संजीव को इतवार को जाना था परन्तु ये क्या शुक्रवार को ही उसके पिता ने ड्राइवर को गाड़ी देकर भेज दिया संजीव को लिवा लाने के लिये। संजीव का मन घर जाने को न था वो भागा-भागा विपुल के पास उसे अलविदा कहने गया परन्तु रो पड़ा। विपुल ने कहा, तुम्हें तो खुश होना चाहिए तुम अपने माता-पिता के पास जा रहे हो।

संजीव ने कहा, विपुल तुम्हें पता है मुझे पहली बार लगा कि बच्चे क्या-क्या करते हैं? मैं तो सुबह उठता हूँ, आया मुझे तैयार करती है, टिफिन देती है और ड्राइवर भैया स्कूल छोड़ आते हैं। स्कूल से वापस आकर टेबल पर पड़ा खाना अकेला खाता हूँ और फिर सो जाता हूँ। ४ बजे उठकर टी॰वी॰ देखता हूँ।

तुम्हारा कोई दोस्त नहीं, खेलने नहीं जाते? विपुल ने पूछा।

संजीव बोला, दोस्त तो हैं पर जाऊँ कैसे, बाहर से ड्राइवर भैय्या दरवाजे पर ताला लगा जाते हैं। शाम को ६ बजे मम्मी-पापा आते हैं और घर खोलते हैं। मुझसे कोई बात भी नहीं करता। उनके साथ ही ट्यूशन वाले सर आ जाते हैं, ८:३० पर वो जाते हैं और मैं सो जाता हूँ।

ये कहकर संजीव रो पड़ा, कहने लगा, विपुल, ये छुट्टियाँ अब कब आएँगी?

अनाथ
शबनम शर्मा

नीलम के ब्याह को चार बरस बीत गये थे। हर वक्त सबकी खोजी नजरें उसे परेशान करती रहती थीं। घर में सास, ननदें, पति सभी को एक बच्चे की इच्छा थी, जो नीलम पूरी न कर पा रही थी। आखिर एक फैसला लिया गया कि बच्चा गोद ले लिया जाये। अनाथालय से बेटी ले ली गई। रिश्तेदारों को निमंत्रण भेजे गये, बड़ी धूम-धाम से नामकरण किया गया। घर में रौनक आ गई। बच्ची की किस्मत ही बदल गई। हर वक्त किसी न किसी की गोद, सुन्दर तोहफे सब कुछ नन्हीं को मिलता। समय का पलटा, नीलम की तबीयत खराब हुई, डाक्टर ने बताया वो माँ बनने वाली है, नन्हीं के आते ही ये शुभ खबर, नन्हीं का लाड़ और परवान चढ़ गया। बेटा हुआ। घर में खुशियाँ भर गईं। पर नन्हीं, छोटे भाई के आते ही बड़ी दिखने लगी। नीलम का सारा ध्यान, प्यार बेटे पर आकर्षित हो गया। घर के दूसरे लोग भी पोते को पाकर निहाल थे। समय के साथ-साथ दोनों बड़े हुए। नन्हीं सरकारी स्कूल में पढ़ी व भाई कान्वेन्ट में। नन्हीं सबका भरपूर ध्यान रखती, खासकर अपने भाई का। परन्तु परिवार में कुछ उसे सदैव ही खटकता रहता। उसकी हर चीज अब सब पर बोझ बन गई थी। घर के काम का दायित्व उस पर बढ़ता ही जा रहा था जबकि भाई को एक शहजादे सी परवरिश मिल रही थी। घर में भाई का जन्मदिन था मैं भी निमंत्रित थी। अच्छा खासा इन्तजाम किया गया। नन्हीं भाग-भागकर काम कर रही थी, कि उसके हाथ लगने से केक के पास रखा फूलदान टूट गया। भाई ने आव देखा न ताव, नन्हीं के जोरदार तमाचा जड़ दिया। नन्हीं रो पड़ी। उसने भी भाई को धक्का दे दिया कि नीलम बिफर सी गई व खींचती सी नन्हीं को अन्दर के कमरे में ले गई। आवाज साफ थी, "तेरी इतनी हिम्मत, अनाथालय की लड़की, तुझे हमने घर दिया, नाम दिया, मेरे बेटे पर हाथ उठाती है।" मैं शून्य में ताकती रह गई, सोचती, नन्हीं क्या अब अनाथ नहीं है, अनाथालय में नहीं रहती।

सम्पर्क : shabnamsharma2006@yahoo.co.in

विश्वास

विश्वास
डॉ. मीना अग्रवाल

क्यों स्मिता! इस कर्मों मारी कुंती माँ पर क्या भूत-सवार हुआ कि कुत्ते वाले पापा जैसे बुढ्ढे से प्यार कर बैठी, इस बुढ़ापे में। रमोला ने आते ही बातचीत का सिलसिला शुरू कर दिया। रमोला का स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि वह इधर-उधर की बातों में अधिक दिलचस्पी लेती है। कॉलोनी की किस लड़की का प्रेम किससे चल रहा है? किस युवक ने किस युवती से चक्कर चला रखा है? कौन किसके साथ फ़रार हो गई शहर से? वह शहर में आए-दिन होने वाली ऐसी घटनाएँ ढूँढकर लाती है और देर तक बैठी उनकी समीक्षा करती रहती है। रमोला एक नर्स है और अवकाश का समय उसके लिए बतियाने का समय होता है। मेरा घर उसके घर के रास्ते में पड़ता है, इसलिए अक्सर वह यहाँ आ जाती है।

मैंने उसकी बात सुनी तो उत्तर देते हुए बोली, ‘तुम इस बात को यों भी तो कह सकती हो रमोला कि इस कुत्ते वाले पापा को इस बुढ़ापे में क्या सूझी कि कुंती माँ जैसी बुढ़िया को दिल दे बैठा।

हाँ! यूँ भी कहा जा सकता है।रमोला एक चंचल मुस्कान अधरों पर लाती हुई बोली, ‘नाक को सीधे पकड़ो या हाथ घुमाकर। बात तो एक ही है।

पिछले एक सप्ताह से कालोनी के लोग इस घटना पर आश्चर्य प्रकट कर रहे थे कि सत्तर साल की बुढ़िया शकुंतला अपना घर-बार छोडकर माइकिल जोसफ़ के यहाँ जाकर रहने लगी थी। माइकिल जोसफ़ की उम्र भी पिचहत्तर साल से कम नहीं थी। उसने एक नहीं, दो नहीं, पूरे तीन तगड़े कुत्ते पाल रखे थे, इसलिए कॉलोनी के लोग उसे कुत्ते वाले पापा के नाम से पुकारने लगे थे। जब भी वह अपने तीनों कुत्तों की जंजीर थामे घर से बाहर निकलता, लोग आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगते।

शकुंतला माँ अभी कुछ वर्ष पहले तक नारी निकेतन की प्रबंधिका थी। उसे अपने सरकारी कर्त्तव्यों से ज्यादा समाजसेवा के कामों में दिलचस्पी थी। सत्तर साल की उम्र पर पहुँच गई थी। इसलिए कालोनी और शहर के सभी परिचित लोग उसे कुंती माँ कहकर पुकारने लगे थे। वह अकेली और निःसंतान थी। जब वह अपने लंबे-चौड़े घर को छोड़कर कुत्ते वाले पापा के यहाँ चली आई तो इस घटना को लेकर लोगों में तरह-तरह की चर्चाएँ होने लगीं? कोई कुछ कहता, कोई कुछ। जितने मुँह, उतनी ही बातें थीं।

मैंने घटना में शामिल दोनों पात्रों की पृष्ठभूमि पर दृष्टि डालते हुए सोचा- ’है वास्तव में अजीब बात?’

तभी रमोला की आवाज मेरे कानों में आई, ‘क्यों स्मिता! क्या सत्तर-पिचहत्तर साल की उम्र में भी प्रेम का उफ़ान बाकी रह जाता है?’ वर-वधू दोनों के बाल बगुलों जैसे सफ़ेद, दोनों के चेहरों पर झुर्रियाँ पड़ी हुईं। न मुँह में दाँत, न पेट में आंत। ऐसे में चले हैं प्रेम करने। मत मारी गई है क्या दोनों की?’

रमोला अपनी बात कह चुकी तो मैंने इस चर्चा को हँसी में टालने की कोशिश करते हुए कहा, ‘पुराने जमाने के लोग जो कह गए हैं रमोला, इश्क़ न जाने जात-कुजात। अब तुम इसमें एक पंक्ति की वृद्धि और कर लो... अब इस कहावत को समय के अनुसार ढालकर कहो, इश्क़ न जाने जात-कुजात, प्रेम न जाने बूढ़ा गात।

रमोला ने यह सुना तो ठट्ठा मारकर हँसी, ‘बात तो तुमने सच कही है स्मिता। यह जमाना ही निर्लज्जता का है? न औरतों की आँख में लाज है, न मर्दों में कोई लिहाज।

रमोला अभी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाई थी कि मैंने उसे बीच में टोकते हुए कहा, ‘पर सुना है कुंती माँ कुत्ते वाले पापा की सेवा तन-मन से कर रही है दिन रात। देवता की तरह पूज रही है उसे। हर काम बैठे-बैठे हो रहा है बड़े मियाँ का। चलो, जवानी में असहनीय दुख झेले थे कुत्ते वाले पापा ने, बुढ़ापे में इसी बहाने कुछ आराम मिला।

यह तो तुम ठीक कह रही हो स्मिता। रमोला मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए बोली, ‘कुत्ते वाले पापा को तो मुफ्रत में घर-बैठे एक सेविका मिल गई। पर प्रश्न यह है कि कुंती माँ को इससे क्या मिला? दिनरात जुटी रहती है, बूढ़े की सेवा में। न समाज की चिंता, न धर्म का खयाल।

मैंने महसूस किया कि रमोला विषय को धार्मिक भेदभाव की तरफ़ मोड़ने का प्रयास कर रही है। मैंने टोका- मानव-सेवा के लिए किसी धर्म के साथ बँधे रहने की जरूरत नहीं होती है रमोला, और जहाँ तक प्रश्न प्राप्ति का है, माना कुंती माँ को धन के रूप में कुछ प्राप्त नहीं हुआ है, पर सेवा का आनंद अपने-आप में भी तो एक प्राप्ति ही है।

खाक पड़े ऐसी प्राप्ति पर।रमोला खीजकर बोली, ‘मौत के कुएँ में पाँव लटकाए बैठे हैं और चले हैं प्रेम करने? अब कोई संतान तो होने से रही, इस निःसंतान जोड़े के।

तुम बेकार की बात कह रही हो रमोला।मैंने उसके विचारों की दिशा बदलने का प्रयास किया.., ‘प्रेम हमेशा शारीरिक ही नहीं होता, कई बार मानसिक भी होता है, बहन।

मुझे लगा, रमोला मेरी बात सुनकर अवाक-सी रह गई। मैंने उसे गंभीरतापूर्वक समझाते हुए कहा, ‘कई बार हम लोग विषय को उसकी पूरी गहराई के साथ नहीं समझते हैं, इसलिए तरह-तरह के भ्रमों में पड़ जाते हैं, जबकि वास्तविकता कई बार कुछ और ही होती है।

रमोला ने मेरे संकेत पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। बोली, ‘वास्तविकता कुछ और नहीं है स्मिता बहन.. बस इतनी है कि एक सत्तर साल की बुढ़िया अपने से अधिक बुढ्ढे व्यक्ति को दिल दे बैठी और उससे संबंध स्थापित कर लिए।

मैं तुम्हारी बात से सहमत नहीं हूँ रमोला।मैंने एक बार फ़िर उसे समझाने की कोशिश करते हुए कहा- इसका निर्णय इतनी जल्दी नहीं किया जाता है, उन परिस्थितियों को भी देखा जाता है, जिसमें किसी व्यक्ति ने कोई ऐसा कदम उठाया, जो हमारी-तुम्हारी राय में उसे नहीं उठाना चाहिए था।

तो क्या तुम जानती हो, वे परिस्थितियाँ क्या थीं, जिनमें कुंती माँ ने अपना घर-द्वार छोडकर कुत्ते वाले पापा का हाथ थामना पसंद किया।रमोला ने मुझसे पूछा।

मैं अधिक नहीं जानती पर कल पिंटू के दादा कुत्ते वाले पापा की चर्चा करते हुए कह रहे थे।मैंने गोद में सो रहे पिंटू की पीठ सहलाते हुए कहा रमोला से, ‘वे कह रहे थे माइकिल जोसफ़ की धर्मपत्नी रोजी जोसफ़ एक सड़क दुघर्टना में जवानी में ही मर गई थी। तब उनके तीन संतानें थीं, तीन बेटे, स्टीफ़न, सायमन और क्रिस्टोफ़र...

पर स्मिता बहन! ये नाम तो उनके यहाँ पले हुए कुत्तों के हैं।रमोला ने मुझे बीच में टोकते हुए आश्चर्य व्यक्त किया।

हाँ! मैं जानती हूँ, माइकिल जोसफ़ ने यही नाम अपने कुत्तों के भी रखे हैं पर क्यों? आगे की बात सुनो।मैंने रमोला के आश्चर्य को दूर करने का प्रयास किया और अपनी बात आगे बढ़ाई, ‘पत्नी की मृत्यु के बाद माइकिल जोसफ़ ने दूसरा विवाह नहीं किया। वह पत्नी की इन तीनों निशानियों को छाती से लगाकर बैठ गए। उन्हें पाला पोसा, पढ़ाया, लिखाया।

मैंने कुत्तेवाले पापा की कहानी को यहीं छोड़कर रमोला से पूछा, ‘क्यों बहन, जिस व्यक्ति ने युवावस्था में बच्चों की खातिर दूसरा विवाह न किया हो, वह अब मौत के निकट आकर ऐसा क्यों कर रहा है?’

हाँ, यह बात तो सोचने की है स्मिता?’ रमोला ने अपने पहले मत के विरोध में सच्चाई प्रकट होते देखी तो जिज्ञासापूर्वक मुझसे पूछा, ‘फ़िर वे तीनों बेटे कहाँ गए माइकल जोसफ़ के? क्या वे भी मर गए? माइकिल जोसफ़ ने उनके नामों पर अपने कुत्तों का नाम क्यों रखा?’

मैंने महसूस किया, रमोला के स्वर में एक साथ सब कुछ जानने की उत्सुकता थी।

मैंने उसे बताया, ‘मैं भी इस बारे में बहुत अधिक नहीं जानती हूँ रमोला, पर पिंटू के दादा ने जो कुछ बताया था, वही दोहरा रही हूँ। उन्होंने बताया था कि जब माइकल जोजेफ़ की पत्नी का देहांत हुआ तब स्टीफ़न आठ साल का था, साइमन पाँच साल का और क्रिस्टोफ़र तीन साल का। तुम समझ सकती हो रमोला, इतनी कम उम्र के बच्चों को पालने-पोसने में कितना कष्ट उठाना पद्आ होगा बूढ़े जोसफ़ को।

हाँ तुम ठीक कहती हो स्मिता। पर जोसफ़ ने उसी समय पुनर्विवाह क्यों नहीं कर लिया था?’ एक स्वाभाविक-सा प्रश्न पूछा रमोला ने।

उसे यह भय रहा होगा कि स्टैप मदर कहीं इन बच्चों के साथ सौतेला व्यवहार न करे। इनके साथ अन्याय न हो!जोजफ़ की इस भावना को समझना मुश्किल नहीं है रमोला।

लेकिन आम पुरुष तो ऐसा नहीं कर पाते, स्मिता।रमोला यह कहते हुए आश्चर्य से भर गई थी।

हाँ! मैं भी यही समझती हूँ।मैंने उत्तर देते हुए कहा, मैं समझती हूँ जोसफ़ साधारण पुरुषों जैसा नहीं था। उसने बच्चों के लिए अपनी पूरी युवावस्था दाँव पर लगा दी।

मैंने अपनी बात जारी रखी, ‘पिंटू के दादा बताते थे कि बच्चों के युवा होने तक जोसफ़ ने न दिन को दिन समझा, न रात को रात। उसने माता और पिता दोनों का कर्त्तव्य निभाया। उन्हें माँ का प्यार भी दिया और पिता का दुलार भी।

पर वे तीनों गए कहाँ?’ बूढे जोसफ़ के साथ तो नहीं रह रहे हैं वे।रमोला ने यह सब जानने की इच्छा प्रकट की, ‘अच्छी नौकरियों पर लग गए तीनों। उनमें से एक इन दिनों राँची में है, दूसरा कलकत्ता में और तीसरा गोहाटी में।

क्या बूढ़े पिता की उनमें से कोई भी खबर नहीं लेता है?’ रमोला ने जिज्ञासा से भरा एक और प्रश्न किया।

पिंटू के दादा बताते थे कि’ - मैं अपनी धुन में कहती गई, ‘तीनों ने बारी-बारी से लवमैरिज कर अपना-अपना घर बसा लिया और बूढ़े पिता को यों भूल गए, जैसे उसने कभी उनके साथ कुछ किया ही न हो।

उफ़! इतना बड़ा त्याग करने वाले पिता के साथ बेटों का ऐसा व्यवहार?’ अनायास रमोला के मुँह से निकला।

मैंने उसकी बात सुनी और बूढ़े जोसफ़ की जीवन-गाथा को और आगे बढ़ाया, ‘तीनों बेटे मुँह मोड़ गए और बूढ़ा जोसफ़ जब उनकी ओर से बिलकुल निराश हो गया तो उसने हताश होकर तीन कुत्ते पाल लिए।

आदमी जब मानव जाति से निराश हो जाता है तो शायद वह पशु-पक्षियों की ओर ही आकर्षित होने लगता है।मैंने पिंटू के दादा से सुनी गाथा को एक क्षण भूलकर जोसफ़ की घटना पर एक मनोवैज्ञानिक टिप्पणी की।

हाँ! हो सकता है ऐसा हो।रमोला ने मुझसे थोड़ी सहमति व्यक्त करते हुए कहा।

पिंटू के दादा बता रहे थे-मैं लौटकर पुनः अपने ससुर के प्रसंग पर आ गई। जोसफ़ ने पता नहीं किस भावना के वशीभूत होकर इन कुत्तों के नाम भी अपने बेटों के नाम पर स्टीफ़न, सायमन और क्रिस्टोफ़र ही रखे। वह अब इनसे भी इतना ही प्यार करता है जैसा कोई अपनी संतानों से करता है।

शायद यह सब निराशा में हुई प्रतिक्रिया के कारण ही किया होगा माइकल जोसफ़ ने।रमोला वास्तविकता को समझते हुए बोली, मैंने अपना वक्तव्य आगे बढ़ाया। पिंटू के दादा बता रहे थे कि माइकल जोसफ़ अब इन कुत्तों को हर समय अपने साथ रखता है। अपने साथ ही खिलाता-पिलाता है, लंच भी और डिनर भी। कुत्तों से उसे वह प्यार मिल रहा है, जो पुत्रों से मिलना चाहिए था।

मानवता से निराश हो जाने की बहुत ही हृदयविदारक घटना है यह।रमोला ने जोसफ़ के अतीत से परिचित होते हुए कहा।

हाँ! मैंने उत्तर दिया और जोसफ़ के संदर्भ को आगे बढाया, ‘पिछले दिनों जब जोसफ़ को टायपफाइड हो गया तो उसके पालतू कुत्ते जोसफ़ की कोई मदद नहीं कर सके। वे न दवा ला सकते थे, न डाक्टर को बुला सकते थे। तीनों उदास उदास मन से जोसफ़ के सिरहाने बैठे रहते, भूखे प्यासे। वे प्यार तो कर सकते थे अपने स्वामी को, पर बीमारी में देखभाल नहीं कर सकते थे उसकी।

बात पूरी नहीं हुई थी कि रमोला ने बीच में हस्तक्षेप करते हुए कहा- इसी दयनीय स्थिति में बूढ़ी माँ कुंती आ गई होगी बीमार और बूढ़े जोसफ़ के पास।

हाँ! निस्संदेह ऐसा ही हुआ होगा।मैंने रमोला की बात का समर्थन किया। तभी द्वार पर आहट हुई। देखा जोसफ़ के पड़ोस में रहने वाली कुमकुम धीमी चाल से चली आ रही थी। मैंने उसका स्वागत करते हुए बैठने के लिए कहा।

कुमकुम कुर्सी पर बैठती हुई बोली, ‘जोसफ़ ने स्वस्थ होते ही अपने कुत्तों को बेच दिया। लेकिन उनके नाम वापस ले लिए। अब वह कुंती माँ के साथ खुश है।

मैंने सुना तो अनायास मेरे मुँह से निकला, ‘शायद अब मानवता पर उसका विश्वास लौट आया है।किसी ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया और अब हम तीनों किसी और विषय में वार्ता करने लगे।

Thursday, June 7, 2007

कौन तुम मेरे ह्रदय मैं?

http://manaskriti.com/kaavyaalaya/kaun_tum_mere_hriday_mein.gif

महादेवी वर्मा - एक परिचय

Mahadevi Verma

Mahadevi Verma (1907-87) was educated in Allahabad, where she founded the 'Prayag Mahila Vidyapitha', promoting the education of girls. An active freedom fighter, Mahadevi Verma is regarded as one of the four pillars of the great Romantic movement in modern Hindi poetry, Chayavada, the remaining three being Suryakant Tripathi 'Nirala', Jaishankar Prasad and Sumitranandan Pant. She is renowned for her book of memoirs, Atita Ke Chalcitra (The Moving Frames of the Past) and Smriti Ki Rekhayen (The Lines of Memory). Her poetic canvas boasts Dipshikha (The Flame of an Earthen Lamp, 1942), a book comprising fifty one lyrics, all of which carry the maturity of expression and intense mystical quality peculiar to this great artiste. Her mysticism led to the birth of a movement called Rahasyavada. Mahadevi Verma has often been compared with Mira Bai, the great 16th century devotional poetess, in her lyrical mysticism and deep devotional offerings to the Almighty. She was the first woman to be made a Fellow of the Sahitya Akademi, in 1979.

Her book Sketches from My Past : Encounters with India's Oppressed (translated by Neera Kuckreja) is a powerful collection of real-life portraits of oppressed women and other deprived members of society. From the jacket: " Her intimate and affectionate sketches of women, men and children she personally knew, reveal her compassion for the desperate plight of the disinherited poor in India, as well as her intense rage at those who exploit women and the dispossessed. Whether it is Binda, the lonely orphan girl victimised by her step-mother; Bhabi the emotionally and physically abused child widow barred from any contact with the outside world; or Sabiya the poor sweeper woman deserted by her husband shortly before the birth of their child, the subjects of Mahadevi's memoir convey her universalist vision to resurrect the inner dignity of "these wounded and mauled lives". Her compelling memoir transcends the borders of culture and time."

Forge a feminist path. A profile from indiatogether.org.

Here is an example of her work, along with its english translation. Its called "tum mujhme priya, phie parichay kya(Why an introduction, since you are within me)

 Tum mujhme priya, phir parichay kya,
tarak mein chhavi,
praano.N mein
smriti,
palako.N mein neerav pad ki gati,
laghu ur mein pulako.n ki sansriti,
bhar laayi h.Un teri chanchal,
aur karoo.N jag mein sanchay kya!

Why an introduction dear, you are within me,
reflections on starry nights, memories of a life,
creations of life in short spells, eyes notice
creations of life in short spells, eyes notice
gentle footsteps!
I don't much to treasure anymore,
you are the treasure I have in me.

Tera mukh sahaas arunoday,
parchhaayi rajani vishaadmay,
wah jaagrati, wah nee.Nd swapnamay,
khel-khel, thak-thak sone de,
main samjhoo.Ngi srishti pralay kya!!

Your dazzling, radiant smile like sunrise
Is the reflection of fragrant sorrow,
it is consciousness, and dreamy slumber,
Let me tire and sleep incessantly, for
Would I understand the creation, big-bang!!

Chitrit tu, main hoo.N rekha- kram,
madhur raag tu, main swar-sangam,
tu aseem main seema ka bhram,
kaaya-chhaya mein rahasmay,
preyasi priyatam ka abhinay kya!!

You are drawn, I am just an outline,
you are the sweet melody, I am just a string of
notes,
you are limitless, I am but an illusion of
limits,
In the secrecy of real image-reflection,
why enact to be lovers!!!

Tum mujhme priya, phir parichay kya!!!

Why an introduction, since you are within me.

पंथ होनe दो अपरिचित

http://manaskriti.com/kaavyaalaya/panth_hone_do_aparichit.gif

जो तुम आ जाते एक बार ।

जो तुम आ जाते

जो तुम आ जाते एक बार ।

कितनी करूणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग
गाता प्राणों का तार तार
अनुराग भरा उन्माद राग
आँसू लेते वे पथ पखार
जो तुम आ जाते एक बार ।

हंस उठते पल में आद्र नयन
धुल जाता होठों से विषाद
छा जाता जीवन में बसंत
लुट जाता चिर संचित विराग
आँखें देतीं सर्वस्व वार
जो तुम आ जाते एक बार ।

- महादेवी वर्मा

मित्रों यह कविता महादेवी जी कि व्यथा को दर्शाती है वे ज्यादा गोरी तथा सुंदर ना होने के कारन उनके पति उनेह छोड़ कर चले गए थे उन्होने उनके गुणों को ना देखकर उनके बाहरी रुप रंग को देखा इस कविता से उनके दिल का दर्द साफ जाहिर होता है

Monday, June 4, 2007

देवी का वर

आज यह दिलचस्प किस्सा सुनने को मिला। एक मध्यमवर्गीय पचास वर्षीय महाशय अपनी शादी की पच्चीसवी वर्षगांठ एक पप्पू के ढाबे में मना रहे थे । अचानक एक देवी प्रकट होकर बोली , तुम दोनो आदर्श पति पत्नी की तरह रहे हो, तुम पर आज हम प्रसन्न है ,बोलो क्या वर माँगते हो ? दोनो को एक एक वर दे सकती हूँ मैं ।

पत्नी ने कहा : जिन्दगी की जद्दोजहद में हम कभी घूम फिर न सके। मैं तो वर्ड दूर करना चाहती हूँ।
देवी ने कहा तथास्तु और दो वर्ड दूर के पैकेज प्रकट हो गए ।
पति कुछ सकुचाते कुछ अकुलाते कुछ बलखाते बोला " माना कि मैंने पूरी जिन्दगी एक पत्नी व्रत किया , परिवार का भरण पोषण किया । पर अब खुद के लिए कुछ मांगने का समय है तो मैं अब पैतालिस साल की मोटी बीबी के साथ वर्ड दूर पे जाने से रहा । मुझे तो अपने से कम से कम तीस साल छोटी छप्पन छुरी बीबी के साथ वर्ड दूर पर जाना कहूँगा ।

देवी ने कहा तथास्तु

अरे आप क्या सोच रहे हो, यह भी कोई बात हुई । यार ये तो सरासर नाइंसाफ़ी हो गयी उस पतिव्रता स्त्री के साथ । पर जनाब यह क्यों भूलते हैं कि देवी भी स्त्री थी । उसके तथास्तु कहते ही पति झक्क से अस्सी का हुई गवा ।

अब यह तो भारत में ही होता है । विदेश में क्या होता है खुद देखिए ।

कुछ सुन लें, कुछ अपनी कह लें

कुछ सुन लें, कुछ अपनी कह लें

कुछ सुन लें, कुछ अपनी कह लें ।

जीवन-सरिता की लहर-लहर,
मिटने को बनती यहाँ प्रिये
संयोग क्षणिक, फिर क्या जाने
हम कहाँ और तुम कहाँ प्रिये ।

पल-भर तो साथ-साथ बह लें,
कुछ सुन लें, कुछ अपनी कह लें ।

आओ कुछ ले लें औ' दे लें ।

हम हैं अजान पथ के राही,
चलना जीवन का सार प्रिये
पर दुःसह है, अति दुःसह है
एकाकीपन का भार प्रिये ।

पल-भर हम-तुम मिल हँस-खेलें,
आओ कुछ ले लें औ' दे लें ।

हम-तुम अपने में लय कर लें ।

उल्लास और सुख की निधियाँ,
बस इतना इनका मोल प्रिये
करुणा की कुछ नन्हीं बूँदें
कुछ मृदुल प्यार के बोल प्रिये ।

सौरभ से अपना उर भर लें,
हम तुम अपने में लय कर लें ।

हम-तुम जी-भर खुलकर मिल लें ।

जग के उपवन की यह मधु-श्री,
सुषमा का सरस वसन्त प्रिये
दो साँसों में बस जाय और
ये साँसें बनें अनन्त प्रिये ।

मुरझाना है आओ खिल लें,
हम-तुम जी-भर खुलकर मिल लें ।

- भगवतीचरण वर्मा

मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ


मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ ।

थपकियों से आज झंझा
के भले ही दीप मेरा
बुझ रहा है, और पथ में,
जा रहा छाये अँधेरा ।

पर न है परवाह कुछ भी,
और कुछ भी ग़म नहीं है
ज्योति दीपक को, तिमिर को,
पथ की पहचान दी है ।

मैं लुटा सर्वस्व-संचित
पूर्ण भी हूँ, रिक्त भी हूँ
मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ ।।

अग्नि-कण को फूँक कर,
ज्वाला बुझाई जा रही है
अश्रु दे दॄग में, जलन,
उर की मिटाई जा रही है ।

इस सुलभ वरदान को मैं,
क्यों नहीं अभिशाप समझूँ ?
मैं न क्यों इस सजल घन से,
है बरसता ताप समझूँ ?
मैं मरूँ क्या, मैं जिऊँ क्या,
शुष्क भी हूँ, सिक्त भी हूँ
मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ ।।

मैं तुम्हारे प्राण के यदि,
अंक में तो क्या हुआ रे ?
है मनोरम कमल बसता
पंक में तो क्या हुआ रे ?
मैं तुम्हारे जाल में पड़
बद्ध भी हूँ, मुक्त भी हूँ
मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ ।।

- श्यामनन्दन किशोर

Sunday, June 3, 2007


ord Shri Krishna has given the total knowledge of life and enlightenment to mankind through Shri Bhagvad Geeta. As the eight incarnation of Lord Vishnu, he embodies the supreme administering power of the universe. The Itihas and Puran of the Vedic Literature provide an eternal record of the divine life of Shri Krishna, revealing how his every thought, word and action serve to eliminate negativity, promote evolution and restore Dharma in world consciousness. Shri Krishna govind hare murare he nath narayan vasudeva is one of the most revered shlokas sung by devotees of Lord Krishna throughout the world. This shloka is sung as a bhajan in various traditional tunes or compositions.
Listening to this bhajan in praise of Lord Krishna fills the heart with bliss, balances the nervous system and brings peace and contentment to the mind.
The most familiar traditional composition is used for this recording. This recording may be played at any time of the day or night and on any day of the week.

Saturday, June 2, 2007

मधुशाला

मधुशाला

मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला,
प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला,
पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा,
सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।।१।

प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूर्ण निकालूँगा हाला,
एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला,
जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका,
आज निछावर कर दूँगा मैं तुझ पर जग की मधुशाला।।२।

प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला,
अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला,
मैं तुझको छक छलका करता, मस्त मुझे पी तू होता,
एक दूसरे की हम दोनों आज परस्पर मधुशाला।।३।

भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला,
कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला,
कभी न कण-भर खाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ!
पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।।४।

मधुर भावनाओं की सुमधुर नित्य बनाता हूँ हाला,
भरता हूँ इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला,
उठा कल्पना के हाथों से स्वयं उसे पी जाता हूँ,
अपने ही में हूँ मैं साकी, पीनेवाला, मधुशाला।।५।

मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवला,
'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ -
'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।'। ६।

चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला!
'दूर अभी है', पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला,
हिम्मत है न बढूँ आगे को साहस है न फिरुँ पीछे,
किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला।।७।

मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला,
हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला,
ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का,
और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला।।८।

मदिरा पीने की अभिलाषा ही बन जाए जब हाला,
अधरों की आतुरता में ही जब आभासित हो प्याला,
बने ध्यान ही करते-करते जब साकी साकार, सखे,
रहे न हाला, प्याला, साकी, तुझे मिलेगी मधुशाला।।९।

सुन, कलकल़ , छलछल़ मधुघट से गिरती प्यालों में हाला,
सुन, रूनझुन रूनझुन चल वितरण करती मधु साकीबाला,
बस आ पहुंचे, दुर नहीं कुछ, चार कदम अब चलना है,
चहक रहे, सुन, पीनेवाले, महक रही, ले, मधुशाला।।१०।

जलतरंग बजता, जब चुंबन करता प्याले को प्याला,
वीणा झंकृत होती, चलती जब रूनझुन साकीबाला,
डाँट डपट मधुविक्रेता की ध्वनित पखावज करती है,
मधुरव से मधु की मादकता और बढ़ाती मधुशाला।।११।

मेंहदी रंजित मृदुल हथेली पर माणिक मधु का प्याला,
अंगूरी अवगुंठन डाले स्वर्ण वर्ण साकीबाला,
पाग बैंजनी, जामा नीला डाट डटे पीनेवाले,
इन्द्रधनुष से होड़ लगाती आज रंगीली मधुशाला।।१२।

हाथों में आने से पहले नाज़ दिखाएगा प्याला,
अधरों पर आने से पहले अदा दिखाएगी हाला,
बहुतेरे इनकार करेगा साकी आने से पहले,
पथिक, न घबरा जाना, पहले मान करेगी मधुशाला।।१३।

लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे देना ज्वाला,
फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला,
दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियाँ साकी हैं,
पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला।।१४।

जगती की शीतल हाला सी पथिक, नहीं मेरी हाला,
जगती के ठंडे प्याले सा पथिक, नहीं मेरा प्याला,
ज्वाल सुरा जलते प्याले में दग्ध हृदय की कविता है,
जलने से भयभीत न जो हो, आए मेरी मधुशाला।।१५।

बहती हाला देखी, देखो लपट उठाती अब हाला,
देखो प्याला अब छूते ही होंठ जला देनेवाला,
'होंठ नहीं, सब देह दहे, पर पीने को दो बूंद मिले'
ऐसे मधु के दीवानों को आज बुलाती मधुशाला।।१६।

धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला,
मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला,
पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका,
कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।।१७।

लालायित अधरों से जिसने, हाय, नहीं चूमी हाला,
हर्ष-विकंपित कर से जिसने, हा, न छुआ मधु का प्याला,
हाथ पकड़ लज्जित साकी को पास नहीं जिसने खींचा,
व्यर्थ सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला।।१८।

बने पुजारी प्रेमी साकी, गंगाजल पावन हाला,
रहे फेरता अविरत गति से मधु के प्यालों की माला'
'और लिये जा, और पीये जा', इसी मंत्र का जाप करे'
मैं शिव की प्रतिमा बन बैठूं, मंदिर हो यह मधुशाला।।१९।

बजी न मंदिर में घड़ियाली, चढ़ी न प्रतिमा पर माला,
बैठा अपने भवन मुअज्ज़िन देकर मस्जिद में ताला,
लुटे ख़जाने नरपितयों के गिरीं गढ़ों की दीवारें,
रहें मुबारक पीनेवाले, खुली रहे यह मधुशाला।।२०।

बड़े बड़े पिरवार मिटें यों, एक न हो रोनेवाला,
हो जाएँ सुनसान महल वे, जहाँ थिरकतीं सुरबाला,
राज्य उलट जाएँ, भूपों की भाग्य सुलक्ष्मी सो जाए,
जमे रहेंगे पीनेवाले, जगा करेगी मधुशाला।।२१।

सब मिट जाएँ, बना रहेगा सुन्दर साकी, यम काला,
सूखें सब रस, बने रहेंगे, किन्तु, हलाहल औ' हाला,
धूमधाम औ' चहल पहल के स्थान सभी सुनसान बनें,
झगा करेगा अविरत मरघट, जगा करेगी मधुशाला।।२२।

भुरा सदा कहलायेगा जग में बाँका, मदचंचल प्याला,
छैल छबीला, रसिया साकी, अलबेला पीनेवाला,
पटे कहाँ से, मधु औ' जग की जोड़ी ठीक नहीं,
जग जर्जर प्रतिदन, प्रतिक्षण, पर नित्य नवेली मधुशाला।।२३।

बिना पिये जो मधुशाला को बुरा कहे, वह मतवाला,
पी लेने पर तो उसके मुह पर पड़ जाएगा ताला,
दास द्रोहियों दोनों में है जीत सुरा की, प्याले की,
विश्वविजयिनी बनकर जग में आई मेरी मधुशाला।।२४।

हरा भरा रहता मदिरालय, जग पर पड़ जाए पाला,
वहाँ मुहर्रम का तम छाए, यहाँ होलिका की ज्वाला,
स्वर्ग लोक से सीधी उतरी वसुधा पर, दुख क्या जाने,
पढ़े मर्सिया दुनिया सारी, ईद मनाती मधुशाला।।२५।

एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,
एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,
दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,
दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।।२६।

नहीं जानता कौन, मनुज आया बनकर पीनेवाला,
कौन अपिरिचत उस साकी से, जिसने दूध पिला पाला,
जीवन पाकर मानव पीकर मस्त रहे, इस कारण ही,
जग में आकर सबसे पहले पाई उसने मधुशाला।।२७।

बनी रहें अंगूर लताएँ जिनसे मिलती है हाला,
बनी रहे वह मिटटी जिससे बनता है मधु का प्याला,
बनी रहे वह मदिर पिपासा तृप्त न जो होना जाने,
बनें रहें ये पीने वाले, बनी रहे यह मधुशाला।।२८।

सकुशल समझो मुझको, सकुशल रहती यदि साकीबाला,
मंगल और अमंगल समझे मस्ती में क्या मतवाला,
मित्रों, मेरी क्षेम न पूछो आकर, पर मधुशाला की,
कहा करो 'जय राम' न मिलकर, कहा करो 'जय मधुशाला'।।२९।

सूर्य बने मधु का विक्रेता, सिंधु बने घट, जल, हाला,
बादल बन-बन आए साकी, भूमि बने मधु का प्याला,
झड़ी लगाकर बरसे मदिरा रिमझिम, रिमझिम, रिमझिम कर,
बेलि, विटप, तृण बन मैं पीऊँ, वर्षा ऋतु हो मधुशाला।।३०।

तारक मणियों से सज्जित नभ बन जाए मधु का प्याला,
सीधा करके भर दी जाए उसमें सागरजल हाला,
मज्ञल्तऌा समीरण साकी बनकर अधरों पर छलका जाए,
फैले हों जो सागर तट से विश्व बने यह मधुशाला।।३१।

अधरों पर हो कोई भी रस जिहवा पर लगती हाला,
भाजन हो कोई हाथों में लगता रक्खा है प्याला,
हर सूरत साकी की सूरत में परिवर्तित हो जाती,
आँखों के आगे हो कुछ भी, आँखों में है मधुशाला।।३२।

पौधे आज बने हैं साकी ले ले फूलों का प्याला,
भरी हुई है जिसके अंदर पिरमल-मधु-सुरिभत हाला,
माँग माँगकर भ्रमरों के दल रस की मदिरा पीते हैं,
झूम झपक मद-झंपित होते, उपवन क्या है मधुशाला!।३३।

प्रति रसाल तरू साकी सा है, प्रति मंजरिका है प्याला,
छलक रही है जिसके बाहर मादक सौरभ की हाला,
छक जिसको मतवाली कोयल कूक रही डाली डाली
हर मधुऋतु में अमराई में जग उठती है मधुशाला।।३४।

मंद झकोरों के प्यालों में मधुऋतु सौरभ की हाला
भर भरकर है अनिल पिलाता बनकर मधु-मद-मतवाला,
हरे हरे नव पल्लव, तरूगण, नूतन डालें, वल्लरियाँ,
छक छक, झुक झुक झूम रही हैं, मधुबन में है मधुशाला।।३५।

साकी बन आती है प्रातः जब अरुणा ऊषा बाला,
तारक-मणि-मंडित चादर दे मोल धरा लेती हाला,
अगणित कर-किरणों से जिसको पी, खग पागल हो गाते,
प्रति प्रभात में पूर्ण प्रकृति में मुखिरत होती मधुशाला।।३६।

उतर नशा जब उसका जाता, आती है संध्या बाला,
बड़ी पुरानी, बड़ी नशीली नित्य ढला जाती हाला,
जीवन के संताप शोक सब इसको पीकर मिट जाते
सुरा-सुप्त होते मद-लोभी जागृत रहती मधुशाला।।३७।

अंधकार है मधुविक्रेता, सुन्दर साकी शशिबाला
किरण किरण में जो छलकाती जाम जुम्हाई का हाला,
पीकर जिसको चेतनता खो लेने लगते हैं झपकी
तारकदल से पीनेवाले, रात नहीं है, मधुशाला।।३८।

किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देती हाला
किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देता प्याला,
किसी ओर मैं देखूं, मुझको दिखलाई देता साकी
किसी ओर देखूं, दिखलाई पड़ती मुझको मधुशाला।।३९।

साकी बन मुरली आई साथ लिए कर में प्याला,
जिनमें वह छलकाती लाई अधर-सुधा-रस की हाला,
योगिराज कर संगत उसकी नटवर नागर कहलाए,
देखो कैसों-कैसों को है नाच नचाती मधुशाला।।४०।

वादक बन मधु का विक्रेता लाया सुर-सुमधुर-हाला,
रागिनियाँ बन साकी आई भरकर तारों का प्याला,
विक्रेता के संकेतों पर दौड़ लयों, आलापों में,
पान कराती श्रोतागण को, झंकृत वीणा मधुशाला।।४१।

चित्रकार बन साकी आता लेकर तूली का प्याला,
जिसमें भरकर पान कराता वह बहु रस-रंगी हाला,
मन के चित्र जिसे पी-पीकर रंग-बिरंगे हो जाते,
चित्रपटी पर नाच रही है एक मनोहर मधुशाला।।४२।

घन श्यामल अंगूर लता से खिंच खिंच यह आती हाला,
अरूण-कमल-कोमल कलियों की प्याली, फूलों का प्याला,
लोल हिलोरें साकी बन बन माणिक मधु से भर जातीं,
हंस मज्ञल्तऌा होते पी पीकर मानसरोवर मधुशाला।।४३।

हिम श्रेणी अंगूर लता-सी फैली, हिम जल है हाला,
चंचल नदियाँ साकी बनकर, भरकर लहरों का प्याला,
कोमल कूर-करों में अपने छलकाती निशिदिन चलतीं,
पीकर खेत खड़े लहराते, भारत पावन मधुशाला।।४४।

धीर सुतों के हृदय रक्त की आज बना रक्तिम हाला,
वीर सुतों के वर शीशों का हाथों में लेकर प्याला,
अति उदार दानी साकी है आज बनी भारतमाता,
स्वतंत्रता है तृषित कालिका बलिवेदी है मधुशाला।।४५।

दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला,
ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला,
कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफिर को?
शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला।।४६।

पथिक बना मैं घूम रहा हूँ, सभी जगह मिलती हाला,
सभी जगह मिल जाता साकी, सभी जगह मिलता प्याला,
मुझे ठहरने का, हे मित्रों, कष्ट नहीं कुछ भी होता,
मिले न मंदिर, मिले न मस्जिद, मिल जाती है मधुशाला।।४७।

सजें न मस्जिद और नमाज़ी कहता है अल्लाताला,
सजधजकर, पर, साकी आता, बन ठनकर, पीनेवाला,
शेख, कहाँ तुलना हो सकती मस्जिद की मदिरालय से
चिर विधवा है मस्जिद तेरी, सदा सुहागिन मधुशाला।।४८।

बजी नफ़ीरी और नमाज़ी भूल गया अल्लाताला,
गाज गिरी, पर ध्यान सुरा में मग्न रहा पीनेवाला,
शेख, बुरा मत मानो इसको, साफ़ कहूँ तो मस्जिद को
अभी युगों तक सिखलाएगी ध्यान लगाना मधुशाला!।४९।

मुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला!।५०।

कोई भी हो शेख नमाज़ी या पंडित जपता माला,
बैर भाव चाहे जितना हो मदिरा से रखनेवाला,
एक बार बस मधुशाला के आगे से होकर निकले,
देखूँ कैसे थाम न लेती दामन उसका मधुशाला!।५१।

और रसों में स्वाद तभी तक, दूर जभी तक है हाला,
इतरा लें सब पात्र न जब तक, आगे आता है प्याला,
कर लें पूजा शेख, पुजारी तब तक मस्जिद मन्दिर में
घूँघट का पट खोल न जब तक झाँक रही है मधुशाला।।५२।

आज करे परहेज़ जगत, पर, कल पीनी होगी हाला,
आज करे इन्कार जगत पर कल पीना होगा प्याला,
होने दो पैदा मद का महमूद जगत में कोई, फिर
जहाँ अभी हैं मन्िदर मस्जिद वहाँ बनेगी मधुशाला।।५३।

यज्ञ अग्नि सी धधक रही है मधु की भटठी की ज्वाला,
ऋषि सा ध्यान लगा बैठा है हर मदिरा पीने वाला,
मुनि कन्याओं सी मधुघट ले फिरतीं साकीबालाएँ,
किसी तपोवन से क्या कम है मेरी पावन मधुशाला।।५४।

सोम सुरा पुरखे पीते थे, हम कहते उसको हाला,
द्रोणकलश जिसको कहते थे, आज वही मधुघट आला,
वेदिवहित यह रस्म न छोड़ो वेदों के ठेकेदारों,
युग युग से है पुजती आई नई नहीं है मधुशाला।।५५।

वही वारूणी जो थी सागर मथकर निकली अब हाला,
रंभा की संतान जगत में कहलाती 'साकीबाला',
देव अदेव जिसे ले आए, संत महंत मिटा देंगे!
किसमें कितना दम खम, इसको खूब समझती मधुशाला।।५६।

कभी न सुन पड़ता, 'इसने, हा, छू दी मेरी हाला',
कभी न कोई कहता, 'उसने जूठा कर डाला प्याला',
सभी जाति के लोग यहाँ पर साथ बैठकर पीते हैं,
सौ सुधारकों का करती है काम अकेले मधुशाला।।५७।

श्रम, संकट, संताप, सभी तुम भूला करते पी हाला,
सबक बड़ा तुम सीख चुके यदि सीखा रहना मतवाला,
व्यर्थ बने जाते हो हिरजन, तुम तो मधुजन ही अच्छे,
ठुकराते हिर मंिदरवाले, पलक बिछाती मधुशाला।।५८।

एक तरह से सबका स्वागत करती है साकीबाला,
अज्ञ विज्ञ में है क्या अंतर हो जाने पर मतवाला,
रंक राव में भेद हुआ है कभी नहीं मदिरालय में,
साम्यवाद की प्रथम प्रचारक है यह मेरी मधुशाला।।५९।

बार बार मैंने आगे बढ़ आज नहीं माँगी हाला,
समझ न लेना इससे मुझको साधारण पीने वाला,
हो तो लेने दो ऐ साकी दूर प्रथम संकोचों को,
मेरे ही स्वर से फिर सारी गूँज उठेगी मधुशाला।।६०।

कल? कल पर विश्वास किया कब करता है पीनेवाला
हो सकते कल कर जड़ जिनसे फिर फिर आज उठा प्याला,
आज हाथ में था, वह खोया, कल का कौन भरोसा है,
कल की हो न मुझे मधुशाला काल कुटिल की मधुशाला।।६१।

आज मिला अवसर, तब फिर क्यों मैं न छकूँ जी-भर हाला
आज मिला मौका, तब फिर क्यों ढाल न लूँ जी-भर प्याला,
छेड़छाड़ अपने साकी से आज न क्यों जी-भर कर लूँ,
एक बार ही तो मिलनी है जीवन की यह मधुशाला।।६२।

आज सजीव बना लो, प्रेयसी, अपने अधरों का प्याला,
भर लो, भर लो, भर लो इसमें, यौवन मधुरस की हाला,
और लगा मेरे होठों से भूल हटाना तुम जाओ,
अथक बनू मैं पीनेवाला, खुले प्रणय की मधुशाला।।६३।

सुमुखी तुम्हारा, सुन्दर मुख ही, मुझको कन्चन का प्याला
छलक रही है जिसमंे माणिक रूप मधुर मादक हाला,
मैं ही साकी बनता, मैं ही पीने वाला बनता हूँ
जहाँ कहीं मिल बैठे हम तुम़ वहीं गयी हो मधुशाला।।६४।

दो दिन ही मधु मुझे पिलाकर ऊब उठी साकीबाला,
भरकर अब खिसका देती है वह मेरे आगे प्याला,
नाज़, अदा, अंदाजों से अब, हाय पिलाना दूर हुआ,
अब तो कर देती है केवल फ़र्ज़ -अदाई मधुशाला।।६५।

छोटे-से जीवन में कितना प्यार करुँ, पी लूँ हाला,
आने के ही साथ जगत में कहलाया 'जानेवाला',
स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी,
बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन-मधुशाला।।६६।

क्या पीना, निर्द्वन्द न जब तक ढाला प्यालों पर प्याला,
क्या जीना, निरंिचत न जब तक साथ रहे साकीबाला,
खोने का भय, हाय, लगा है पाने के सुख के पीछे,
मिलने का आनंद न देती मिलकर के भी मधुशाला।।६७।

मुझे पिलाने को लाए हो इतनी थोड़ी-सी हाला!
मुझे दिखाने को लाए हो एक यही छिछला प्याला!
इतनी पी जीने से अच्छा सागर की ले प्यास मरुँ,
सिंधँु-तृषा दी किसने रचकर बिंदु-बराबर मधुशाला।।६८।

क्या कहता है, रह न गई अब तेरे भाजन में हाला,
क्या कहता है, अब न चलेगी मादक प्यालों की माला,
थोड़ी पीकर प्यास बढ़ी तो शेष नहीं कुछ पीने को,
प्यास बुझाने को बुलवाकर प्यास बढ़ाती मधुशाला।।६९।

लिखी भाग्य में जितनी बस उतनी ही पाएगा हाला,
लिखा भाग्य में जैसा बस वैसा ही पाएगा प्याला,
लाख पटक तू हाथ पाँव, पर इससे कब कुछ होने का,
लिखी भाग्य में जो तेरे बस वही मिलेगी मधुशाला।।७०।

कर ले, कर ले कंजूसी तू मुझको देने में हाला,
दे ले, दे ले तू मुझको बस यह टूटा फूटा प्याला,
मैं तो सब्र इसी पर करता, तू पीछे पछताएगी,
जब न रहूँगा मैं, तब मेरी याद करेगी मधुशाला।।७१।

ध्यान मान का, अपमानों का छोड़ दिया जब पी हाला,
गौरव भूला, आया कर में जब से मिट्टी का प्याला,
साकी की अंदाज़ भरी झिड़की में क्या अपमान धरा,
दुनिया भर की ठोकर खाकर पाई मैंने मधुशाला।।७२।

क्षीण, क्षुद्र, क्षणभंगुर, दुर्बल मानव मिटटी का प्याला,
भरी हुई है जिसके अंदर कटु-मधु जीवन की हाला,
मृत्यु बनी है निर्दय साकी अपने शत-शत कर फैला,
काल प्रबल है पीनेवाला, संसृति है यह मधुशाला।।७३।

प्याले सा गढ़ हमें किसी ने भर दी जीवन की हाला,
नशा न भाया, ढाला हमने ले लेकर मधु का प्याला,
जब जीवन का दर्द उभरता उसे दबाते प्याले से,
जगती के पहले साकी से जूझ रही है मधुशाला।।७४।

अपने अंगूरों से तन में हमने भर ली है हाला,
क्या कहते हो, शेख, नरक में हमें तपाएगी ज्वाला,
तब तो मदिरा खूब खिंचेगी और पिएगा भी कोई,
हमें नमक की ज्वाला में भी दीख पड़ेगी मधुशाला।।७५।

यम आएगा लेने जब, तब खूब चलूँगा पी हाला,
पीड़ा, संकट, कष्ट नरक के क्या समझेगा मतवाला,
क्रूर, कठोर, कुटिल, कुविचारी, अन्यायी यमराजों के
डंडों की जब मार पड़ेगी, आड़ करेगी मधुशाला।।७६।

यदि इन अधरों से दो बातें प्रेम भरी करती हाला,
यदि इन खाली हाथों का जी पल भर बहलाता प्याला,
हानि बता, जग, तेरी क्या है, व्यर्थ मुझे बदनाम न कर,
मेरे टूटे दिल का है बस एक खिलौना मधुशाला।।७७।

याद न आए दूखमय जीवन इससे पी लेता हाला,
जग चिंताओं से रहने को मुक्त, उठा लेता प्याला,
शौक, साध के और स्वाद के हेतु पिया जग करता है,
पर मै वह रोगी हूँ जिसकी एक दवा है मधुशाला।।७८।

गिरती जाती है दिन प्रतिदन प्रणयनी प्राणों की हाला
भग्न हुआ जाता दिन प्रतिदन सुभगे मेरा तन प्याला,
रूठ रहा है मुझसे रूपसी, दिन दिन यौवन का साकी
सूख रही है दिन दिन सुन्दरी, मेरी जीवन मधुशाला।।७९।

यम आयेगा साकी बनकर साथ लिए काली हाला,
पी न होश में फिर आएगा सुरा-विसुध यह मतवाला,
यह अंितम बेहोशी, अंतिम साकी, अंतिम प्याला है,
पथिक, प्यार से पीना इसको फिर न मिलेगी मधुशाला।८०।

ढलक रही है तन के घट से, संगिनी जब जीवन हाला
पत्र गरल का ले जब अंतिम साकी है आनेवाला,
हाथ स्पर्श भूले प्याले का, स्वाद सुरा जीव्हा भूले
कानो में तुम कहती रहना, मधु का प्याला मधुशाला।।८१।

मेरे अधरों पर हो अंितम वस्तु न तुलसीदल प्याला
मेरी जीव्हा पर हो अंतिम वस्तु न गंगाजल हाला,
मेरे शव के पीछे चलने वालों याद इसे रखना
राम नाम है सत्य न कहना, कहना सच्ची मधुशाला।।८२।

मेरे शव पर वह रोये, हो जिसके आंसू में हाला
आह भरे वो, जो हो सुरिभत मदिरा पी कर मतवाला,
दे मुझको वो कान्धा जिनके पग मद डगमग होते हों
और जलूं उस ठौर जहां पर कभी रही हो मधुशाला।।८३।

और चिता पर जाये उंढेला पत्र न घ्रित का, पर प्याला
कंठ बंधे अंगूर लता में मध्य न जल हो, पर हाला,
प्राण प्रिये यदि श्राध करो तुम मेरा तो ऐसे करना
पीने वालांे को बुलवा कऱ खुलवा देना मधुशाला।।८४।

नाम अगर कोई पूछे तो, कहना बस पीनेवाला
काम ढालना, और ढालना सबको मदिरा का प्याला,
जाति प्रिये, पूछे यदि कोई कह देना दीवानों की
धर्म बताना प्यालों की ले माला जपना मधुशाला।।८५।

ज्ञात हुआ यम आने को है ले अपनी काली हाला,
पंिडत अपनी पोथी भूला, साधू भूल गया माला,
और पुजारी भूला पूजा, ज्ञान सभी ज्ञानी भूला,
किन्तु न भूला मरकर के भी पीनेवाला मधुशाला।।८६।

यम ले चलता है मुझको तो, चलने दे लेकर हाला,
चलने दे साकी को मेरे साथ लिए कर में प्याला,
स्वर्ग, नरक या जहाँ कहीं भी तेरा जी हो लेकर चल,
ठौर सभी हैं एक तरह के साथ रहे यदि मधुशाला।।८७।

पाप अगर पीना, समदोषी तो तीनों - साकी बाला,
नित्य पिलानेवाला प्याला, पी जानेवाली हाला,
साथ इन्हें भी ले चल मेरे न्याय यही बतलाता है,
कैद जहाँ मैं हूँ, की जाए कैद वहीं पर मधुशाला।।८८।

शांत सकी हो अब तक, साकी, पीकर किस उर की ज्वाला,
'और, और' की रटन लगाता जाता हर पीनेवाला,
कितनी इच्छाएँ हर जानेवाला छोड़ यहाँ जाता!
कितने अरमानों की बनकर कब्र खड़ी है मधुशाला।।८९।

जो हाला मैं चाह रहा था, वह न मिली मुझको हाला,
जो प्याला मैं माँग रहा था, वह न मिला मुझको प्याला,
जिस साकी के पीछे मैं था दीवाना, न मिला साकी,
जिसके पीछे था मैं पागल, हा न मिली वह मधुशाला!।९०।

देख रहा हूँ अपने आगे कब से माणिक-सी हाला,
देख रहा हूँ अपने आगे कब से कंचन का प्याला,
'बस अब पाया!'- कह-कह कब से दौड़ रहा इसके पीछे,
किंतु रही है दूर क्षितिज-सी मुझसे मेरी मधुशाला।।९१।

कभी निराशा का तम घिरता, छिप जाता मधु का प्याला,
छिप जाती मदिरा की आभा, छिप जाती साकीबाला,
कभी उजाला आशा करके प्याला फिर चमका जाती,
आँखिमचौली खेल रही है मुझसे मेरी मधुशाला।।९२।

'आ आगे' कहकर कर पीछे कर लेती साकीबाला,
होंठ लगाने को कहकर हर बार हटा लेती प्याला,
नहीं मुझे मालूम कहाँ तक यह मुझको ले जाएगी,
बढ़ा बढ़ाकर मुझको आगे, पीछे हटती मधुशाला।।९३।

हाथों में आने-आने में, हाय, फिसल जाता प्याला,
अधरों पर आने-आने में हाय, ढुलक जाती हाला,
दुनियावालो, आकर मेरी किस्मत की ख़ूबी देखो,
रह-रह जाती है बस मुझको मिलते-िमलते मधुशाला।।९४।

प्राप्य नही है तो, हो जाती लुप्त नहीं फिर क्यों हाला,
प्राप्य नही है तो, हो जाता लुप्त नहीं फिर क्यों प्याला,
दूर न इतनी हिम्मत हारुँ, पास न इतनी पा जाऊँ,
व्यर्थ मुझे दौड़ाती मरु में मृगजल बनकर मधुशाला।।९५।

मिले न, पर, ललचा ललचा क्यों आकुल करती है हाला,
मिले न, पर, तरसा तरसाकर क्यों तड़पाता है प्याला,
हाय, नियति की विषम लेखनी मस्तक पर यह खोद गई
'दूर रहेगी मधु की धारा, पास रहेगी मधुशाला!'।९६।

मदिरालय में कब से बैठा, पी न सका अब तक हाला,
यत्न सहित भरता हूँ, कोई किंतु उलट देता प्याला,
मानव-बल के आगे निर्बल भाग्य, सुना विद्यालय में,
'भाग्य प्रबल, मानव निर्बल' का पाठ पढ़ाती मधुशाला।।९७।

किस्मत में था खाली खप्पर, खोज रहा था मैं प्याला,
ढूँढ़ रहा था मैं मृगनयनी, किस्मत में थी मृगछाला,
किसने अपना भाग्य समझने में मुझसा धोखा खाया,
किस्मत में था अवघट मरघट, ढूँढ़ रहा था मधुशाला।।९८।

उस प्याले से प्यार मुझे जो दूर हथेली से प्याला,
उस हाला से चाव मुझे जो दूर अधर से है हाला,
प्यार नहीं पा जाने में है, पाने के अरमानों में!
पा जाता तब, हाय, न इतनी प्यारी लगती मधुशाला।।९९।

साकी के पास है तिनक सी श्री, सुख, संपित की हाला,
सब जग है पीने को आतुर ले ले किस्मत का प्याला,
रेल ठेल कुछ आगे बढ़ते, बहुतेरे दबकर मरते,
जीवन का संघर्ष नहीं है, भीड़ भरी है मधुशाला।।१००।

साकी, जब है पास तुम्हारे इतनी थोड़ी सी हाला,
क्यों पीने की अभिलषा से, करते सबको मतवाला,
हम पिस पिसकर मरते हैं, तुम छिप छिपकर मुसकाते हो,
हाय, हमारी पीड़ा से है क्रीड़ा करती मधुशाला।।१०१।

साकी, मर खपकर यदि कोई आगे कर पाया प्याला,
पी पाया केवल दो बूंदों से न अधिक तेरी हाला,
जीवन भर का, हाय, पिरश्रम लूट लिया दो बूंदों ने,
भोले मानव को ठगने के हेतु बनी है मधुशाला।।१०२।

जिसने मुझको प्यासा रक्खा बनी रहे वह भी हाला,
जिसने जीवन भर दौड़ाया बना रहे वह भी प्याला,
मतवालों की जिहवा से हैं कभी निकलते शाप नहीं,
दुखी बनाय जिसने मुझको सुखी रहे वह मधुशाला!।१०३।

नहीं चाहता, आगे बढ़कर छीनूँ औरों की हाला,
नहीं चाहता, धक्के देकर, छीनूँ औरों का प्याला,
साकी, मेरी ओर न देखो मुझको तिनक मलाल नहीं,
इतना ही क्या कम आँखों से देख रहा हूँ मधुशाला।।१०४।

मद, मदिरा, मधु, हाला सुन-सुन कर ही जब हूँ मतवाला,
क्या गति होगी अधरों के जब नीचे आएगा प्याला,
साकी, मेरे पास न आना मैं पागल हो जाऊँगा,
प्यासा ही मैं मस्त, मुबारक हो तुमको ही मधुशाला।।१०५।

क्या मुझको आवश्यकता है साकी से माँगूँ हाला,
क्या मुझको आवश्यकता है साकी से चाहूँ प्याला,
पीकर मदिरा मस्त हुआ तो प्यार किया क्या मदिरा से!
मैं तो पागल हो उठता हूँ सुन लेता यदि मधुशाला।।१०६।

देने को जो मुझे कहा था दे न सकी मुझको हाला,
देने को जो मुझे कहा था दे न सका मुझको प्याला,
समझ मनुज की दुर्बलता मैं कहा नहीं कुछ भी करता,
किन्तु स्वयं ही देख मुझे अब शरमा जाती मधुशाला।।१०७।

एक समय संतुष्ट बहुत था पा मैं थोड़ी-सी हाला,
भोला-सा था मेरा साकी, छोटा-सा मेरा प्याला,
छोटे-से इस जग की मेरे स्वर्ग बलाएँ लेता था,
विस्तृत जग में, हाय, गई खो मेरी नन्ही मधुशाला!।१०८।

बहुतेरे मदिरालय देखे, बहुतेरी देखी हाला,
भाँित भाँित का आया मेरे हाथों में मधु का प्याला,
एक एक से बढ़कर, सुन्दर साकी ने सत्कार किया,
जँची न आँखों में, पर, कोई पहली जैसी मधुशाला।।१०९।

एक समय छलका करती थी मेरे अधरों पर हाला,
एक समय झूमा करता था मेरे हाथों पर प्याला,
एक समय पीनेवाले, साकी आलिंगन करते थे,
आज बनी हूँ निर्जन मरघट, एक समय थी मधुशाला।।११०।

जला हृदय की भट्टी खींची मैंने आँसू की हाला,
छलछल छलका करता इससे पल पल पलकों का प्याला,
आँखें आज बनी हैं साकी, गाल गुलाबी पी होते,
कहो न विरही मुझको, मैं हूँ चलती फिरती मधुशाला!।१११।

कितनी जल्दी रंग बदलती है अपना चंचल हाला,
कितनी जल्दी घिसने लगता हाथों में आकर प्याला,
कितनी जल्दी साकी का आकर्षण घटने लगता है,
प्रात नहीं थी वैसी, जैसी रात लगी थी मधुशाला।।११२।

बूँद बूँद के हेतु कभी तुझको तरसाएगी हाला,
कभी हाथ से छिन जाएगा तेरा यह मादक प्याला,
पीनेवाले, साकी की मीठी बातों में मत आना,
मेरे भी गुण यों ही गाती एक दिवस थी मधुशाला।।११३।

छोड़ा मैंने पथ मतों को तब कहलाया मतवाला,
चली सुरा मेरा पग धोने तोड़ा जब मैंने प्याला,
अब मानी मधुशाला मेरे पीछे पीछे फिरती है,
क्या कारण? अब छोड़ दिया है मैंने जाना मधुशाला।।११४।

यह न समझना, पिया हलाहल मैंने, जब न मिली हाला,
तब मैंने खप्पर अपनाया ले सकता था जब प्याला,
जले हृदय को और जलाना सूझा, मैंने मरघट को
अपनाया जब इन चरणों में लोट रही थी मधुशाला।।११५।

कितनी आई और गई पी इस मदिरालय में हाला,
टूट चुकी अब तक कितने ही मादक प्यालों की माला,
कितने साकी अपना अपना काम खतम कर दूर गए,
कितने पीनेवाले आए, किन्तु वही है मधुशाला।।११६।

कितने होठों को रक्खेगी याद भला मादक हाला,
कितने हाथों को रक्खेगा याद भला पागल प्याला,
कितनी शक्लों को रक्खेगा याद भला भोला साकी,
कितने पीनेवालों में है एक अकेली मधुशाला।।११७।

दर दर घूम रहा था जब मैं चिल्लाता - हाला! हाला!
मुझे न मिलता था मदिरालय, मुझे न मिलता था प्याला,
मिलन हुआ, पर नहीं मिलनसुख लिखा हुआ था किस्मत में,
मैं अब जमकर बैठ गया हँू, घूम रही है मधुशाला।।११८।

मैं मदिरालय के अंदर हूँ, मेरे हाथों में प्याला,
प्याले में मदिरालय बिंिबत करनेवाली है हाला,
इस उधेड़-बुन में ही मेरा सारा जीवन बीत गया -
मैं मधुशाला के अंदर या मेरे अंदर मधुशाला!।११९।

किसे नहीं पीने से नाता, किसे नहीं भाता प्याला,
इस जगती के मदिरालय में तरह-तरह की है हाला,
अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार सभी पी मदमाते,
एक सभी का मादक साकी, एक सभी की मधुशाला।।१२०।

वह हाला, कर शांत सके जो मेरे अंतर की ज्वाला,
जिसमें मैं बिंिबत-प्रतिबंिबत प्रतिपल, वह मेरा प्याला,
मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती है,
भेंट जहाँ मस्ती की मिलती मेरी तो वह मधुशाला।।१२१।

मतवालापन हाला से ले मैंने तज दी है हाला,
पागलपन लेकर प्याले से, मैंने त्याग दिया प्याला,
साकी से मिल, साकी में मिल अपनापन मैं भूल गया,
मिल मधुशाला की मधुता में भूल गया मैं मधुशाला।।१२२।

मदिरालय के द्वार ठोंकता किस्मत का छंछा प्याला,
गहरी, ठंडी सांसें भर भर कहता था हर मतवाला,
कितनी थोड़ी सी यौवन की हाला, हा, मैं पी पाया!
बंद हो गई कितनी जल्दी मेरी जीवन मधुशाला।।१२३।

कहाँ गया वह स्वर्गिक साकी, कहाँ गयी सुरिभत हाला,
कहँा गया स्वपिनल मदिरालय, कहाँ गया स्वर्णिम प्याला!
पीनेवालों ने मदिरा का मूल्य, हाय, कब पहचाना?
फूट चुका जब मधु का प्याला, टूट चुकी जब मधुशाला।।१२४।

अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला,
अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना प्याला,
फिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उज्ञल्तऌार पाया -
अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला!।१२५।

'मय' को करके शुद्ध दिया अब नाम गया उसको, 'हाला'
'मीना' को 'मधुपात्र' दिया 'सागर' को नाम गया 'प्याला',
क्यों न मौलवी चौंकें, बिचकें तिलक-त्रिपुंडी पंिडत जी
'मय-महिफल' अब अपना ली है मैंने करके 'मधुशाला'।।१२६।

कितने मर्म जता जाती है बार-बार आकर हाला,
कितने भेद बता जाता है बार-बार आकर प्याला,
कितने अर्थों को संकेतों से बतला जाता साकी,
फिर भी पीनेवालों को है एक पहेली मधुशाला।।१२७।

जितनी दिल की गहराई हो उतना गहरा है प्याला,
जितनी मन की मादकता हो उतनी मादक है हाला,
जितनी उर की भावुकता हो उतना सुन्दर साकी है,
जितना ही जो रिसक, उसे है उतनी रसमय मधुशाला।।१२८।

जिन अधरों को छुए, बना दे मस्त उन्हें मेरी हाला,
जिस कर को छूू दे, कर दे विक्षिप्त उसे मेरा प्याला,
आँख चार हों जिसकी मेरे साकी से दीवाना हो,
पागल बनकर नाचे वह जो आए मेरी मधुशाला।।१२९।

हर जिहवा पर देखी जाएगी मेरी मादक हाला
हर कर में देखा जाएगा मेरे साकी का प्याला
हर घर में चर्चा अब होगी मेरे मधुविक्रेता की
हर आंगन में गमक उठेगी मेरी सुरिभत मधुशाला।।१३०।

मेरी हाला में सबने पाई अपनी-अपनी हाला,
मेरे प्याले में सबने पाया अपना-अपना प्याला,
मेरे साकी में सबने अपना प्यारा साकी देखा,
जिसकी जैसी रुिच थी उसने वैसी देखी मधुशाला।।१३१।

यह मदिरालय के आँसू हैं, नहीं-नहीं मादक हाला,
यह मदिरालय की आँखें हैं, नहीं-नहीं मधु का प्याला,
किसी समय की सुखदस्मृति है साकी बनकर नाच रही,
नहीं-नहीं किव का हृदयांगण, यह विरहाकुल मधुशाला।।१३२।

कुचल हसरतें कितनी अपनी, हाय, बना पाया हाला,
कितने अरमानों को करके ख़ाक बना पाया प्याला!
पी पीनेवाले चल देंगे, हाय, न कोई जानेगा,
कितने मन के महल ढहे तब खड़ी हुई यह मधुशाला!।१३३।

विश्व तुम्हारे विषमय जीवन में ला पाएगी हाला
यदि थोड़ी-सी भी यह मेरी मदमाती साकीबाला,
शून्य तुम्हारी घड़ियाँ कुछ भी यदि यह गुंजित कर पाई,
जन्म सफल समझेगी जग में अपना मेरी मधुशाला।।१३४।

बड़े-बड़े नाज़ों से मैंने पाली है साकीबाला,
किलत कल्पना का ही इसने सदा उठाया है प्याला,
मान-दुलारों से ही रखना इस मेरी सुकुमारी को,
विश्व, तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हूँ मधुशाला।।१३५।

पिरिशष्ट से

स्वयं नहीं पीता, औरों को, किन्तु पिला देता हाला,
स्वयं नहीं छूता, औरों को, पर पकड़ा देता प्याला,
पर उपदेश कुशल बहुतेरों से मैंने यह सीखा है,
स्वयं नहीं जाता, औरों को पहुंचा देता मधुशाला।

मैं कायस्थ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढ़ाला,
मेरे तन के लोहू में है पचहज्ञल्तऌार प्रतिशत हाला,
पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आँगन पर,
मेरे दादों परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला।

बहुतों के सिर चार दिनों तक चढ़कर उतर गई हाला,
बहुतों के हाथों में दो दिन छलक झलक रीता प्याला,
पर बढ़ती तासीर सुरा की साथ समय के, इससे ही
और पुरानी होकर मेरी और नशीली मधुशाला।

पित्र पक्ष में पुत्र उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला
बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला
किसी जगह की मिटटी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी
तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला।

- बच्चन

* * *

बेताल कथा

बेताल कथा

—अंशुमान अवस्थी


हर सफ़र की एक कहानी होती है और उस कहानी की एक शुरुआत भी, पर ज़िंदगी के सफ़र की कहानी की शुरुआत कहाँ से की जाय क्यों कि आमतौर पर उसकी तो शुरुआत ही गुम होती है। यह एक गंभीर समस्या है। हमने तो जब से होश सँभाला है अपने को सफ़र में ही पाया है। ख़ैर छोड़िए शुरुआत को, अब तो बस आप अंत का सोचिए। वैसे भी जब कोई कहानी शुरू होती है तो ख़त्म भी। पर ज़िंदगी की कहानी, अरे साहब इसमें तो इतने क्रमश: लगे होते हैं कि...अब हम आपको क्या बताएं... ख़ैर परेशान होने की बात नहीं है इस कहानी का अंत आपको इन्हीं पृष्ठों में कहीं न कहीं मिल ही जाएगा और यदि यहाँ नहीं तो कहीं और सही... कभी और सही।

कहते हैं कि पूत के पाँव पालने में ही नज़र आ जाते हैं। हमारे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। पर अपना परिचय देने से पहले व कहानी शुरू करने से पहले हम अपने खानदान वगैरह के बारे में बता दें ताकि पाठकों को ये मालूम हो जाए कि हम किस विरासत के मालिक है और परंपराओं में हमारा कितना विश्वास है।

हमारे दादा जी, सारे गाँव में शास्त्री जी के नाम से मशहूर थे पर शास्त्रों से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था। कहते थे कि शिक्षा व्यक्तित्व की दुश्मन होती है। उनका मानना था कि यदि हमारे पूर्वज वानर थे और मनुष्य का विकास उन्हीं से हुआ है तो अब इस विकास को क्या हो गया है, ज़ाहिर है जिस दिन से मनुष्य ने अध्ययन आदि करना शुरू किया उसका विकास रुक गया है। मानव जीवन में शिक्षा एक कृत्रिम आवश्यकता है और यही वजह है कि प्रकृति में कोई भी 'चेतन' (सिवाय मनुष्य के) इस दिशा में नहीं सोचता है। आख़िर शेर को शेर की तरह व्यवहार करने में कितनी पुस्तकों की सहायता होती है। जब तक वो जीवित रहे अपने सद्धांतों पर अडिग रहे। कहते थे कि कलम बंदूक से भी ख़तरनाक हथियार है इसलिए कभी हाथ मत लगाना।

अपने इन्हीं सद्धांतों की बदौलत हमारे दादाजी सांसद बनकर संसद तक घूम आए और ढाई साल बाद जब वो मध्यावधि चुनावों को कोसते हुए संसद से गाँव वापस आए तो इस अखंड विश्वास के साथ कि मनुष्य को वास्तव में किसी शिक्षा की आवश्यकता नहीं है (हमें नहीं लगता कि पाठकों को अपनी संसद के परिचय की तनिक भी आवश्यकता है)। उनके इन तर्कों को गाँव से लेकर दिल्ली तक, कभी कोई काट नहीं पाया।

देखिए बात कहाँ शुरू हुई थी और कहाँ मुड़ गई। भला परंपरा और संसद का भी कोई संबंध है। वहाँ तो प्रतिदिन नई परंपराएँ पड़ती हैं और अगले दिन टूट जाती हैं। तो हम बात कर रहे थे अपने दादाजी व उनके मानव जीवन तथा शिक्षा के प्रति अति विशिष्ट दृष्टिकोण की। अब जैसा कि हर युग हर परिवार में होता आया है, कोई न कोई विद्रोही प्रकृति का निकल ही आता है।

यही हाल था हमारे पिताजी का। यह तो पता नहीं की शिक्षा के प्रति उनका दृष्टिकोण क्या है क्योंकि उस विषय पर हमारी उनसे कभी बात नहीं हुई पर सुनने में आता है कि पढ़ाई लिखाई में उनकी रुचि कभी नहीं रही। अब चूँकि सुनने सुनाने पर ही हम भारतीयों का पूरा इतिहास क्या, पूरा का पूरा अस्तित्व ही आधारित है इसलिए अविश्वास की गुंजाइश रह नहीं जाती।

इतिहास की बात से याद आया कि न तो मैक्सम्युलर ने तब कोई छेड़खानी की होती और न ही अँग्रेजों ने बाद में कोई शैतानी तो यह दक्षिणपंथी ­ वामपंथी इतिहास का कोई झगड़ा भी न होता और न ही कुछ प्रतिशत पढ़े-लिखे लोगों को फालतू की मगज़मारी ही करनी पड़ती कि सभ्यता का विकास गंगोत्री से गंगासागर की तरफ़ हुआ है या फिर गंगासागर से गंगोत्री की ओर।

देखिए बात फिर मुड़ गई। अब क्या करें अपनी फितरत ही कुछ ऐसी है, हाँ तो पढ़ाई हमारे पिताजी ने अवश्य की। पढ़ाई उन्होंने हमारे दादाजी के ख़िलाफ़ विद्रोह की दुंदुभी बजाकर की जैसा कि आजकल हर टीनएजर करने पर तुला हुआ है। पर आजकल तो सब विद्रोह कर रहे हैं पढ़ाई कोई नहीं कर रहा। जब तक हमारे पिताजी ने बारहवीं पास नहीं कर ली हमारे दादाजी कुढ़ते रहे, जब उन्हें किसी तरह से विश्वविद्यालय में प्रवेश मिला तब दादाजी को यह सोच कर चैन आया कि अब तो उनका पुत्र नेतागीरी करके सारे खानदान का नाम रोशन करेगा। वैसे भी विश्वविद्यालयों से आजकल किसी को नौकरी की गारंटी भले न मिलती हो पर नेतागीरी जैसे फलते फूलते व्यवसाय में हाथ पैर मारने के लिए काफ़ी अनुभव मिल ही जाता है। पर नेतागीरी हमारे पिताजी ने की नहीं यद्यपि उन्हें बातें बनाने में महारत हासिल है, फिर भी...।

अब आप ये बताइए इस देश में बातें बनाने में किसे महारत हासिल नहीं है। राह चलते आपको ऐसे लोग मिल जाएँगे जो हर विषय के साथ-साथ बातें करने में भी विशेषज्ञ होंगे। राजनीति और समाजशास्त्र से लेकर स्टिंग थ्योरी तक में उनका दखल होगा। पाठकों को लग रहा होगा कि हम विषय से भटक जाते हैं। क्या करें विषय से भटकने की परंपरा का निर्वाह जो करना है। सारे देश का यही हाल है, नेतागण यदि विषय से भटके हुए हैं तो आम जनता भी उनसे पीछे कहाँ है। वैसे तो आम जनता को तो पता ही नहीं है कि विषय क्या है और जानकर भी क्या करना है।

मज़ेदार बात यह है कि भटक कर भी लोग अपनी परंपराओं को नहीं भूले हैं और किसी न किसी तरीके से कोई न कोई परंपरा वेताल की तरह अपने कंधे पर लादे लिए जा रहे हैं। कोई उनसे पूछे कि भाई विक्रमादित्य बनने में मज़ा आता है क्या, पर सवाल यह है कि पूछे कौन। सभी तो विक्रमादित्य बनने में व्यस्त हैं। लखनऊ के नवाब साहब एक भूलभुलैया बनवाकर एक अनोखी परंपरा क्या छोड़ गए, सारा का सारा देश ही भूलभुलैया बना हुआ है।

अब जब परंपरा पालन की बात चल ही निकली है तो लगे हाथों क्यों न गांधी परंपरा का भी ज़िक्र कर लें। यह तो पता नहीं कि गांधी परंपरा का निर्वाह कितने और कौन लोग कर रहे हैं पर गांधी जी के बंदरों के भक्त बहुत मिल जाएँगे ­ बुरा कहने वाले को कुछ न कहो और वैसे भी आजकल भला कोई कुछ कहता है, यदि कहीं कुछ बुरा हो रहा है तो आँख मूँद लो और यदि कोई किसी को बुरा (भला) कह रहा है तो अनसुनी कर दो।

तो यह था थोड़ा परिचय हमारे खानदान, विरासत व परंपराओं के बारे में और अब हम अपनी कहानी वहाँ से शुरू करते हैं जहाँ पर छोड़ी थी। हम बचपन से काफ़ी रचनात्मक थे और रचनात्मक अभिव्यक्ति में हमारा काफ़ी विश्वास था क्योंकि सिर्फ़ रचनात्मक होना ही काफ़ी नहीं होता। हमारी पहली रचना गूढ़ विचारों के रूप में तब सामने आई जब हमने उन्हें घर की सफ़ेद दीवारों पर काफ़ी दार्शनिक अंदाज़ में व्यक्त किया था। अलग व्यक्तित्व पर उनका प्रभाव कुछ अलग ढंग से पड़ा था। माँ हमारी रचनात्मकता से अभिभूत होकर भावविभोर हो गईं थीं, पिताजी ने मुसकुराकर कहा था चिंता मत करो, बड़ा होकर जब समझदार बनेगा तब यह हम जैसों की तरह ही इस समाज में घुलमिल कर उसी का एक हिस्सा हो जाएगा। हमारे दादाजी, उन्हें तो काफ़ी सदमा लगा था और तुरंत ही उन्होंने ज्योतिषी को बुलवा भेजा था।

ज्योतिषी के अनुसार हमारे जन्म के समय नक्षत्रों की स्थिति कुछ वैसी ही थी जैसी कि भक्त तुलसीदास के लिए, पर बच्चे की फितरत कबीरदास जैसी होगी, कुल मिलाकर परेशान होने जैसी कोई बात नहीं है। लेकिन हमारे दादाजी को चैन कहाँ, उन्होंने तो घर पर अखंड रामायण बिठवा दी ताकि हमारे ऊपर से बुरे ग्रहों का साया उठ जाय। अगले ही दिन उस सफ़ेद दीवार पर हमारी कलाकृति की जगह उन टोटकों ने ले ली थी जो हमारे भले के लिए डाले गए थे। कभी-कभी हम सोचते हैं कि गुफ़ाओं में बने वो पाषाणकालीन चित्र कहीं टोटके ही तो नहीं जिसे हमारे तथाकथित सभ्य समाज ने कला का नाम दे दिया है और उनके छायाचित्र अपने ड्राइंगरूम में लटकाकर ड्राइंगरूम को एथनिक टच देने में लगे रहते हैं।

°°°

बात उस समय की है जब हमने क़रीब दो­ढाई सौ पन्ने जमा कर लिए थे अपनी कविताओं के, बस समस्या यही थी कि मूल्यांकन किससे करवाया जाय। एक दिन बातों बातों में हमने अपनी इस समस्या का ज़िक्र मित्र हनुमान से किया तो वह फट से फूट पड़ा, ''एक बात मानो गुरू., तुम पंडित जी के पास चले जाओ।''
''कौन वो मांटेसरी वाले,'' हमने पूछा।
''हाँ वही याद नहीं है पिछले साल रामलीला के टाइम खूब कविता बोले थे और खूब तालियाँ पाए थे, कविता वो लिखें और झेले सारा गाँव।''

हनुमान ने चुटकी ली और चलता बना पर हमें अवश्य सोच में डाल गया। वास्तव में क्या तालियाँ बजाई थी श्रोताओं ने उनके काव्यपाठ के दौरान। उनकी हर कविता के बाद पूरा पंडाल तालियों की गड़गड़ाहट गूँज जाता इस आशा से कि ये अंतिम होगी पर पंडित जी तालियों की गर्जना से प्रेरित हो सावन भादों की झड़ी की तरह एक नई कविता शुरू कर देते। हद तो तब हो गई जब उनकी एक कविता के दौरान श्रोता सारे समय ताली ही बजाते रहे, यह धुन निकालते रहे 'और नहीं अब और नहीं' और उस कविता को अंतिम बनाकर ही छोड़ा। पंडित जी को भी लगा कि तालियों की निरंतर गड़गड़ाहट ही उनकी कविताओं को सच्ची श्रद्धांजलि है, तभी जाकर वो रुके।

ख़ैर अब कोई और चारा भी हमारे पास न था। पंडित जी के पास तो जाना ही था। काफ़ी हिम्मत जुटाई, जुटानी क्या थी हनुमान ने दिलाई। पन्ने सँभाले और एक दोपहर पहुँच गए पंडितजी के घर। सबसे पहले पंडितजी के पालतू कुत्ते ने सूँघकर, दुम हिलाकर और फिर अपने दो पैर हमारे ऊपर टिकाते हुए, हमारा मुँह चाटकर स्वागत किया ओर हमें बैठक की ओर ले गया। पंडितजी ध्यानमग्न होकर अपनी उँगलियों से नाक के बालों से खेल रहे थे।

कुत्ते की कूं-कूं से उनकी तंद्रा टूटी तो बोले ''अरे बेटा तुम! कहो कैसे आए? घर पर सब लोग मज़े में हैं?'' ऐसा लगा कि उन्हें उत्तर में कोई रुचि नहीं है। प्रश्न पूछना था सो पूछ लिया। यह तो कुछ वैसा ही व्यवहार था जैसा कि विपक्ष का संसद में होता है। ''जी... वो ज़रा... आपको कुछ दिखाने लाया था। कुछ कविताएँ लिखी हैं, हमने सोचा आपको दिखा लें।''
''दिखाओ'', अचानक गंभीर हो गई उनकी मुखमुद्रा से गंभीर स्वर निकला। एक पल को तो हमें लगा कि कहीं कविताओं को लेकर हमने उनके कॉपीराइट को तो चुनौती नहीं दे दी। ख़ैर हमने पन्ने उनके सामने सरका दिए। उन्होंने अपनी ऐनक नाक पर चढ़ाई और काफ़ी देर तक अपनी थूक लगी उँगलियों से पन्ने पलट-पलट कर ध्यानमग्न होकर पढ़ने के बाद उन्होंने एक लंबी जम्हाई ली और उसी दौरान बोलते हुए कहा ''बाकी सब तो ठीक है पर तुम्हारी कविताओं में जीवंतता नहीं है।''
''जी...,'' हम बस इतना ही कह पाए थे कि पंडितजी बीच में ही टोकते हुए कहने लगे, ''अरे भाई कहाँ तुम नगरपालिका और समाज के चक्करों में उलझे हुए हो। अभी तुम लड़के हो कुछ रूमानियत पैदा करो अपनी कविता में। इतनी गंभीरता उस उम्र में अच्छी नहीं।''

इस बार हमने प्रश्नवाचक मुद्रा बनाई और बोलना चाहा पर पंडित जी तो अपने आप ही में खोए हुए थे, भला हमारी तरफ़ क्यों देखते। उन्होंने बोलना जारी रखा, ''शृंगार रस के बारे में पढ़ा है?'' उनके प्रश्न में प्रश्न कम शायद आश्चर्य अधिक था। पंडित जी का बोलना फिर शुरू हो चुका था, ''यही तो समस्या है आजकल के छात्रों और शिक्षा की, कि जो सीखते हैं उसका उपयोग नहीं करते और जिसका उपयोग करते हैं पता नहीं कहाँ से सीखकर आते हैं। हम लोग तो अपने विद्यालयों में ऐसी शिक्षा देते नहीं।''

कुछ सीखने की बात जब आई है तो हम आपको यह बात बता दें कि हमारे अध्यापक भी हैरान हो जाते थे हमारी परीक्षा पुस्तिकाओं को देखकर कि लड़कों ने जो कुछ भी लिखा है आख़िर सीखा कहाँ से। उनकी समस्या का भी निदान हो ही जाता, यदि हर परीक्षा पुस्तिका में विद्यालय के नाम के साथ-साथ सीखने की जगह के बारे में भी लिखा जाता। कुछ भोंदू किस्म के लड़कों को छोड़कर बाकी के सारे उस जगह में 'कन्या पाठशाला' ही लिखते।

हमारे गाँव में तीन स्कूल थे। पहला 'प्राथमिक विद्यालय' जो कि मुख्यत: लड़कों के लिए था, दूसरा ‘कन्या पाठशाला’ जो सिर्फ़ लड़कियों के लिए था और तीसरा ‘मांटेसरी स्कूल’ जो कि पास के शहर के हर मोहल्ले में कुकुरमुत्तों की तरह उगने के बाद हमारे गाँव में भी उगा आया था। मांटेसरी स्कूल में लड़कों और लड़कियों में किसी तरह का भेद नहीं था।

पहले दो विद्यालय चूंकि सरकारी थे इसलिए अब बंद हो चुके हैं यद्यपि आज भी हर साल छात्र­पंजिका में लड़कों के नाम दर्ज होते हैं पर वो खुशकिस्मत छात्र विद्यालय आने की बजाय अध्यापकों के खेतों में काम करके देश की उत्पादकता बढ़ाते हैं। रही बात कन्या पाठशाला की, तो अभिभावकों ने अपनी लड़कियों को पाठशाला भेजना ही बंद कर दिया। उनका तर्क था कि विद्यालय आकर अध्यापिकाओं के स्वेटर बुनने से अच्छा है कि घर पर रहकर घरवालों के ही स्वेटर बुने जाएँ।

तो इस तरह से दोनों सरकारी विद्यालय बंद हो गए। अब सारे गाँव को साक्षर बनाने की ज़िम्मेदारी पूरी तरह से मांटेसरी स्कूल पर ही आ चुकी है। पंडित जी भी प्राथमिक विद्यालय की उपस्थिति पंजिका में उपस्थिति लगा कर मांटेसरी स्कूल में बच्चों को हिंदी पढ़ाते हैं। पता नहीं वो सीखने सिखाने की बात अपने पर भी लागू कर रहे थे या नहीं वैसे भी हम सोच में पड़ चुके थे 'आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास...' वाला हाल हो चुका था। आए थे अपनी कविताओं का मूल्यांकन करवाने और अब शिक्षा पद्धति पर विचार सुनने को मिल रहे थे, हाय री विडंबना।

हमारा मन तो हुआ कि कह दें कि आप लोग तो विद्यालय में कैसी भी शिक्षा नहीं देते, पर चुप रहें और पंडितजी को सुनते रहे। नाक पर नीचे सरकते चश्मे को अपनी तर्जनी से ऊपर सरकाते हुए वो कहने लगे ''शिक्षा से अनुशासन तो अब ग़ायब ही है। भौतिक अनुशासन से लेकर वैचारिक अनुशासन, सब कुछ ग़ायब है, सब कुछ... शिक्षा से ही क्यों अब तो...।''

न जाने क्या सोच कर पंडित जी चुप हो गए, वैसे भी पता नहीं पंडित जी किस वैचारिक अनुशासन की बात कर रहे थे। हमारे विचार तो हमारे सामने कटी पतंग की तरह तैरते नज़र आ रहे थे, पता नहीं पंडित जी को भी दिख रहे थे या नहीं। अचानक अंदर से ढिशुम­ढिशुम की आवाज़ आई। हमने दरवाज़े की तरफ़ देखा और पंडित जी ने अपने कुत्ते की तरफ़, जो कि पहले से ही दरवाज़े की तरफ़ देख रहा था, देखते हुए कहा, ''लल्लन टेलीविजन धीरे करो।''

हमें काफ़ी इत्मीनान हुआ यह जानकर कि यह टीवी था। वैसे भी जब से टीवी घरों में आया है, यथार्थ और कल्पनाओं में अंतर काफ़ी कम हुआ है। बच्चे तो सुपरमैन बन कल्पना की उड़ान भर कर जब यथार्थ की कठोर ज़मीन पर क्रैश लैंडिग करते हैं, माँ­बाप को सीधे अस्पताल ही भागना पड़ता है। गाँव का बनिया जब से एक डिश ख़रीदकर लाया है लगभग हर घर में केबल कनेक्शन पहुँच गया है। पाठकगण सोच में पड़ गए होंगे कि हम किसी बाइसवीं सदी के गाँव की बात कर रहे हैं क्योंकि हमारे देश के गाँवों में बिजली का तो भरोसेमंद कनेक्शन है नहीं और हम केबल कनेक्शन की बात कर रहे हैं।

हमारा गाँव इस मामले में थोड़ा प्रगतिवादी है, हालाँकि प्रगतिवादी होना मजबूरी है फिर भी है। बात यह है कि हमारा गाँव शहर के काफ़ी पास है। शहर साल दर साल फैल रहे हैं, इस बात से हमारा गाँव भी अछूता नहीं रहा और अब सांस्कृतिक क्राइसिस के मुहाने पर आ पहुँचा है। ख़ैर, देर सबेर यह तो होना ही था। अचानक हमारी तंद्रा पंडित जी के बड़बड़ाने से टूटी। ''सारे दिन टेलीविजन पर नंगनाच आता रहता है, बच्चे लोग हैं कि मानते ही नहीं हैं और ऊपर से ससुर ये रामपाल बनिया केबिल दिखा दिखा के सब सत्यानाश किए दे रहा है।'' बड़बड़ाना उनकी बेबसी थी। शायद वो अपने घर में ही किसी तरह के अनुशासन का ही पालन नहीं करवा पा रहे थे। घर क्यों उनके खुद के लिए भी यह कार्य काफ़ी दुष्कर था।

हम सभी की यही व्यथा है। जैसे हर बुराई पड़ोसी के घर से शुरू होती उसी प्रकार समाजसेवा भी। आपको राह चलते कितने ही ऐसे समाज सेवी मिल जाएँगे जिनके खुद के घर वाले उचक्कई करते घूम रहे होंगे। उदाहरण के लिए हमारे नेतागण जो अपना घर छोड़कर देश का नेतृत्व करने निकले हैं, भाई घर तो नातेदार सँभाल ही लेंगे पर देश को कौन सँभालेगा। सही कहा आपने, महानुभाव! वैसे भी सारी धरती तो हमारा घर है ही, 'वसुधैव कुटुंबकम'।

''हाँ तो बात शृंगार रस पर अटकी थी,'' पंडित जी गला खखारकर प्रसंग में वापस आते हुए बोले, ''देखो मैं तुम्हे एक उदाहरण देता हूँ,'' पर उदाहरण देने से पहले उन्होंने लल्लन को चाय के लिए आवाज़ लगाई। फिर उन्होंने चार पंक्तियाँ सुनाई, जिन्हें हम यहाँ लिख कर उन्हें अमरत्व नहीं प्रदान करना चाहते। ''यह है कविता हमने लिखी थी जब हम रहे होंगे कोई तुम्हारी उम्र के, जब हमारी शादी लल्लन की अम्मा से हुई थी और आज का दिन है, हमारे अंदर आज भी उतनी ही रूमानियत विद्यमान है।'' इसके साथ ही पंडित जी, पान चबा-चबा कर भूरे पड़ चुके अपने दाँतों को निपोर कर, हँस दिए। ख़ैर, कविता और चाय दोनों की ही मधुरता, बमुश्किल हमारे गले के नीचे उतरे। जब हमने उनसे चलने की आज्ञा माँगी, तो उनकी मुखमुद्रा देखकर ऐसा लगा कि हमने कोई अवज्ञा कर डाली है, एक बार फिर वो अपनी हिदायत दोहराना नहीं भूले, ''देखो लिखते तो ठीक हो पर थोड़ी-सी रूमानियत लाकर प्रयास करो।'' ख़ैर यह और बात है कि हमने पंडित जी की बात कभी नहीं मानी।

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तो यह था हमारे साहित्यिक व्यक्तित्व का समाज से प्रथम परिचय। अब चूंकि प्रथम था इसलिए काफ़ी झटकेदार अनुभव भी, आज तक याद है। बाकी के सारे तो कलम की स्याही बन काग़ज़ के पन्नों पर उतरे और समय के साथ फीके पड़ कर कहीं गुम हो गए। आज साहित्य के जिस पड़ाव पर हम आकर रुके हुए हैं, इसका सफ़र न जाने कितने टेढ़े-मेढ़े रास्तों से होकर पूरा किया है। काफ़ी टेढ़ी-मेढ़ी बातें हैं, यदि चिंतन करने और लिखने बैठ गया तो हमारे साथ-साथ पाठकों को भी दर्शनशास्त्र में पीएच.डी. की उपाधि मिल जाएगी। वैसे भी न जाने अभी कितना सफ़र और बाकी है। मौका मिला तो बाकी के सफ़र की कहानी फिर कभी पर इस बेताल कथा को भूलिएगा